Book Title: Jinabhashita 2007 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ मङ्गलं कुन्दकुन्दाद्यो पं. शिवचरणलाल जैन विदित ही है कि दि. जैनधर्म, परम्परा कुन्दकुदाम्नाय । की एकान्तिक मान्यताओं का खंडन, शास्त्रार्थ आदि में या कुन्दकुन्दान्वय का पर्यायवाची है। यह जैन प्रतिमाओं, | विजय के द्वारा कर धर्मपताका फहराई। उन्होंने विकृत शिलालेखों, ग्रन्थों और यन्त्रादि की प्रशस्तियों और उल्लेखों | वेषधारी शिथिलाचारी साधुओं को अपने आत्म-वैभव, ज्ञान प्रकाश सम स्पष्ट होता है। लगभग २ हजार वर्षों | और चारित्र के तेज द्वारा व प्रायश्चित्तरूप दण्ड के द्वारा से दिगम्बर जैन साधुपरम्परा अपने को कुन्दकुन्दान्वय सत्यार्थ मोक्षमार्ग में लगाया। विशाल ८४ पाहुड व परिकर्म अर्थात कन्दकन्द स्वामी के वंश का घोषित कर गौरव का टीकारूप साहित्यसजन के द्वारा आगे की साधपरम्परा को अनुभव करती रही है। उसकी स्पष्ट मान्यता रही है कि भी सुरक्षित बनाया। यदि वे न होते तो अद्यावधि निर्ग्रन्थ कुन्दकुन्द का उनपर असीम उपकार एवं ऋण है जिसे | मुनिपरम्परा ही शुद्धरूप में न होती। न भुलाया जा सकता है न चुकाया जा सकता है। यद्यपि ३. मूलसंघ की चर्या हेतु भी उन्होंने तत्कालीन उसकाल में अन्य भी श्री धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबली, | साधुसंघ को अनवरत अनुशासित कर शुद्ध आम्नाय में गुणधर आदि आचार्य भी आगम के लिपिकार, आत्मगवेषी, ढाला। लंबे समय तक उन्होंने साधुवर्ग को उचित आचरण ज्ञानी, ध्यानी, आंशिक श्रुतधराचार्य हुए हैं परन्तु उनका क्षेत्र | का अभ्यासी बनाया। मूलाचार की रचना इसका प्रबल आत्मसाधना रूप उद्देश्य तथा आगमश्रुत प्रकाशन भावना | प्रमाण है। पर केन्द्रित रहा है। उनके प्रति भी श्रमणपरम्परा सदैव ४. अध्यात्म उनका प्रिय एवं मूल विषय था। इस नतमस्तक रही है, उनका अवदान भी सदैव सविनय | हेतु उन्होंने अनेकान्त स्याद्वाद अर्थात् सापेक्षरूप से निश्चयस्मरणीय है। व्यवहार नयों की समष्टि-प्रतिपादन का महान् कार्य किया, दिगम्बर जैनधर्म एवं परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द जिसे उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, आदि में स्वामी का आद्य के स्थापितरूप में मान्यता पर निम्न बिन्दुओं | आत्म-स्वरूप व मोक्षमार्ग के निरूपण में निर्देशित किया द्वारा दृष्टिपात करना अभीष्ट होगा। है। दृष्टव्य है, उनकी आत्मतत्त्व की प्राप्ति हेतु घोषणा१. अन्तिम श्रुतकेवली आ. भद्रबाहु के पश्चात् जो | 'दोण्हवि णयाण भणियं जाणइ णवरिं तु समयपडिबद्धो। दि. संघ या मूलसंघ था, वह दुष्काल आदि के कारण | ण द णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्खपरिहीणो॥ शिथिल व विघटित हो रहा था। उसमें श्वेताम्बर आदि ण वि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइवि होइ तित्थयरो। का प्राबल्य हो रहा था। उस संक्रमण के विभीषिका युग | णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे॥' में आचार्य कुन्दकुन्द ने अपनी स्वयं की निर्दोष चर्या के उक्त दृष्टियों से प्रकट होता है कि सिरि भूवलय साथ मूलसंघ को आगमोक्त निर्ग्रन्थ एवं शिथिलाचार से आदि बहुशः ग्रन्थों में प्रायः प्राप्त निम्नश्लोक जो कि रहित कर सही दिशा में संगठित किया। उनके संघ में मंगलाचरण के रूप में परम्परा में स्थापित ही है, निर्विवाद अन्तर्बाह्य दोनों रूप से नग्न द्रव्यलिङ्ग भावलिङ्ग दोनों रूप व अपरिवर्तनीय रूप में स्वीकार्य होना अपेक्षित है ताकि के धारी, लगभग पाँचहजार मुनि सम्मिलित होकर धर्मप्रभावना मूलसंघ नग्न दिगम्बर जैन निर्ग्रन्थ परम्परा संगठित एवं के मानदण्ड बने। यह कार्य अन्य से संभव नहीं था। किसी प्रभावकरूप में अक्षुण्ण बनी रहे। भी उद्देश्य से उनके स्थान पर अन्य को स्थापित करने मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। का प्रयास दि. जैन के लिए घातक होगा। मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्॥ २. आचार्य कुन्दकुन्द ने खण्डनात्मक, दण्डनात्मक इत्यलम् व सृजनात्मक सभी उपायों से क्रियान्वयन किया। श्वेताम्बर श्यामभवन, बजाजा मैनपुरी (उ.प्र.) और जैनेतर सांख्य, बौद्ध, वैशेषिक, जैमिनि आदि दर्शनों 10 सितम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36