Book Title: Jinabhashita 2007 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 21
________________ जीवकांड में इस संबंध में इस प्रकार कहा है स्पर्शादि और शब्दादि पर्याय वाली है क्योंकि उसमें स्पर्श ओरालिय उत्तत्थं विजाण मिस्सं तु अपरिपुण्णं तं। | गुण पाया जाता है। खाये हुये अन्न का वात, पित्त, श्लेष्म जो तेण संप जोगो, ओरालिय मिस्स जोगो सो।२३१॥ | रूप से परिणमन होता है। वात अर्थात् वायु। इसलिये वायु अर्थ- औदारिक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है | को भी स्पर्शादिवाला मानना चाहिये।" अर्थात् शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है, तब तक मिश्र है | जब जल का अग्नि पर गर्भ किया जाता है तब और उसके द्वारा होने वाले योग को औदारिक मिश्रयोग | वह हाइड्रोजन ऑक्सीजन रूप बन जाता है। ये दोनों वायु कहते हैं। पुद्गल का पिंड हैं तथा अजीव हैं। मिश्र काययोग तीन होते हैं। उपर्युक्त प्रकार से ही, | २. वायुजीव- जो जीव विग्रह गति से आकर वायु जब तक वैक्रियिक शरीर की शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती, | में जन्म लेने वाला है, वह वायुजीव है। यह जीव है चेतन तब तक वैक्रियिकमिश्र काययोग तथा आहारक शरीर की | है। शरीर पर्याप्ति पूर्ण न होने तक आहारकमिश्र काययोग | ३. वायुकायिक जीव- उपर्युक्त वायुजीव, जब कहलाता है। | वायु में जन्म ले लेता है, अर्थात् वायु को अपना शरीर निष्कर्ष यह है कि शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने से पूर्व, | बनाकर जन्म ले लेता है, उसे वायुकायिक जीव कहते जब तक कार्मण एवं अन्य शरीर संबंधी वर्गणाओं (दोनों हैं। यह चेतन है। के द्वारा मिलकर) द्वारा आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन होता । ४. वायुकाय- जिस जीव सहित वायु को गर्म कर है, उसे मिश्र काययोग कहते हैं। लिया है या अन्य कारणों से जिसमें से वायुकायिक जीव प्रश्नकर्ता- सौ. अर्चना शाह बारामती। मरण को प्राप्त हो गये हैं, वह वायु, वायुकाय है। यह जिजासा- क्या लवणसमद्र के पातालों की गहराई | अचेतन है। नरक के बिलों तक गहरी है? प्रमाण से बताइये। वास्तव में पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु ये चारों समाधान- उपरोक्त संबंध में श्री तिलोयपण्णत्ति | ही पदगल के पिंड हैं। इनमें जो जीव, इनको ही अपना ४/२४४३ में इसप्रकार कहा है शरीर बनाकर जन्म ले लेते हैं, वे उस कायिक जीव जेट्ठा ते संलग्गा, सीमंत विलस्स उवरिमे भागे। कहलाते हैं। मुनिराज के कमंडलु में जो जल भरा जाता पणसय जोयणबहला, कुड्डा एदाण वज्जमया॥२४४३॥ है, वह अचेतन (पुद्गल) है, उसमें जीव नहीं होते। इसी अर्थ- वे ज्येष्ठ पाताल सीमंतक विल के उपरिम प्रकार चारों (पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायु) के संबंध में भाग से संलग्न हैं। इनकी वज्रमय दीवारें ५०० योजन प्रमाण समझ लेना चाहिये। मोटी हैं। जिज्ञासा- क्या केवलज्ञान आत्मा को जानता है? विशेषार्थ:- रत्नप्रभा नाम की प्रथम पृथ्वी १,८०,००० समाधान- केवलज्ञान आत्मा को नहीं जानता है, योजन मोटी है। इसके खर, पङ्क तथा अब्बहुल नाम वाले सच तो यह है कि आत्मा ही केवलज्ञान से जानता है। ३ भाग हैं। ये क्रमशः १६,०००, ८४००० और ८०००० जानने वाला तो आत्मा ही है। केवलज्ञान स्वयं पर्याय है योजन मोटे हैं। लवणसमुद्र की मध्यम परिधि पर जो चार अतः उसकी दूसरी पर्याय नहीं हो सकती। अर्थात् यदि ज्येष्ठ पाताल हैं, वे अब्बहल भाग में स्थित प्रथम नरक | केवलज्ञान को स्व पर प्रकाशक माना जायेगा तो उसकी के सीमंतक बिल के उपरिम भाग से संलग्न हैं। और इनसे एक काल में स्व प्रकाशक और पर प्रकाशक रूप दो पर्यायें चित्रा पृथ्वी के उपरिम तल की ऊँचाई १६०००+ ८४०००= माननी पड़ेंगी। किंतु केवलज्ञान स्वयं पर प्रकाश स्वरूप १,००,००० (एक लाख) योजन है। ही एक पर्याय है। केवलज्ञान न तो जानता ही है और न उपरोक्त प्रमाणानुसार लवणसमुद्र के ज्येष्ठ पाताल, देखता ही है, क्योंकि वह स्वयं जानने व देखने रूप क्रिया प्रथम नरक तक गहरे हैं। का कर्ता नहीं है। अतः ज्ञान को अंतरङ्ग-बहिरङ्ग, दोनों जिज्ञासा- वायु पुद्गल है या जीव है? का प्रकाशक न मानकर, ऐसा मानना चाहिये कि जीव स्व समाधान- इस प्रश्न का समाधान समझने के लिये और पर का प्रकाशक है। श्री जयधवला १/३२५-२६ में हमें वाय से संबंधित चार प्रकारों का लक्षण समझना इसप्रकार कहा भी है- ण केवल णाणं जाणइ पस्सइ वा, आवश्यक है। जो इसप्रकार है तस्स कत्तारता भावादो। १. वायु- यह पुद्गल का पिंड है। श्री राजवार्तिक ५/२५ की टीका में इसप्रकार कहा गया है- "वायु भी 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा (उ.प्र.) -सितम्बर 2007 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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