Book Title: Jinabhashita 2007 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ महाराज के लिए मुखर होती रहती है। वे प्रतिवर्ष आ. | अध्यात्मग्रन्थों को आत्मसात् करके ही इसे सृजित किया विद्यासागर जी का संयमोत्सव वर्ष अपने मंच से मनाते | है। आत्मरसिक स्वाध्यायार्थियों को आत्म-चिन्तन के हैं। यह संतसौहार्द मुनि श्री विशुद्धसागर की अध्यात्मचेतना | सरोवर में निमग्न होने के लिए जैसे 'गागर में सागर' भरने का एक प्रबल पक्ष है। कोई पक्ष व्यामोह नहीं, जहाँ केवल की उक्ति चरितार्थ कर दी हो। यह सत्य है कि जब वीतरागता को नमन है- चाहे वे आ. विरागसागर हों या | कोई महान् आत्मसाधक साधना के चरमोत्कर्ष पर पहँच आ. विद्यासागर। जाता है तो उसकी भावाभिव्यक्ति मानवीय संवेदना के बहुत इधर विगत् २० वर्षों से अनेक राष्ट्रीय स्तर की | निकट पहुँच जाती है। अध्यात्म का कठिन रास्ता, उसके विद्वत्संगोष्ठियाँ अनेक आचार्य/उपाध्याय और मुनियों के | लिए सरल बन जाता है। उदाहरणार्थ एक गाथा यहाँ उद्धृत पावन सान्निध्य और उनके आशीर्वाद व प्रेरणा से समायोजित | करता हूँ। हो रही हैं जहाँ देशभर के मनीषी एक मंच पर बैठकर यथा-यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्। अपने जैनदर्शन/जैनधर्म और श्रावकाचार पर गवेषणात्मक तथा-तथा नरोचन्ते विषयाः सुलभा अपि॥३७॥ प्रस्तुतियाँ देकर शोधपत्र पढते हैं। परन्तु ऐसी कोई जैन संस्कृत की इस गाथा नं. ३७ का भावपूर्ण सौष्ठव साधुओं और आचार्यों की संगीतियाँ समायोजित नहीं हुई। देखें। संवित्ति अर्थात् स्व. पर के भेद-विज्ञान से आत्मा पिछले ५० वर्षों में, जैसा इतिहास में पढ़ा था कि नालन्दा | जैसे-जैसे विशुद्ध और प्राज्जल बनती हुई आत्म-विकास और तक्षशिला विश्वविद्यालयों में श्रमणसाधुओं की संगीतियाँ | करती है वैसे-वैसे ही सहज प्राप्त रमणीय पंचेद्रिय के हुआ करती थी वे आज दुर्लभ हैं। आज हर संघ के साधुओं | विषय उसे अरुचिकर और नि:स्वाद लगने लगते हैं। उन की अपनी-अपनी चर्या होती जा रही है और इक्कीसवीं | विषयों के प्रति उदासीन या अनासक्त भाव जाग्रत होने सदी का प्रभाव उनमें घुसपैठ कर रहा है। चाहे वह मोबाइल | लगता है। जैसे सूर्यप्रकाश के सामने दीपक का प्रकाश का प्रयोग हो या विज्ञापन की खर्चीली विधियाँ, वातानुकूलित | मंद दिखता हुआ तिरोहित सा हो जाता है, उसीप्रकार कक्षों में रहना हो या फ्लश का उपयोग। अब तो साध की निजानन्द चैतन्य स्वरूप का भान होने पर उस विराट साधना का एक ही मापदण्ड रह गया है कि वह प्रवचन कला | आत्म-सुख के समक्ष, विषय-भोग के सांसारिक सख में कितना प्रवीण या निपुण है और श्रोताओं की भीड़ जुटाने | अन्तहीन और बौने दिखने लगते हैं। आत्मसाधक के लिए में कितना सक्षम है? मुनि विशुद्धसागर इसके अपवाद हैं। वे सुख आकर्षित नहीं कर पाते। जिनेन्द्र भगवान् ने लोग इन्हें लघु विद्यासागर जी तक कहने लगे हैं क्योंकि | निराकुलता को सच्चा सुख कहा है। संसार-सुख देह-भोग श्री विशुद्धसागर जी की मुनिचर्या आगमानुकूल निर्दोषचर्या | का सुखाभास है। जैसे इन्द्रधनुष की सुन्दरता क्षणिक और है। शिथिलाचार आपकी चर्या में फटक नहीं पाता और | काल्पनिक है वस्तुतः वह दृष्टिभ्रम का एक उदाहरण है आचार्य श्री विद्यासागर जी के लघु संस्करण हैं और समत्व | वैसे ही इन्द्रिय-सुख आकुलता को पैदा करने वाला वैसा और वीतरागता के प्राञ्जल-नक्षत्र हैं। जैनसमाज आज बीस, ही सुख है जैसे शहद लिपटी तलवार की धार को जीभ तेरा में विभक्त हो रही है, निश्चय और व्यवहार पक्ष के | से चाँटने पर सुख होता है। उस क्षणिक-सुख में वेदना कारण विभाजित है। उपजाति के आधार पर अपनी पहिचान | का पहाड़ छिपा होता है। विषय-काम-भोग के सुख वस्तुतः बनाने में 'गोलापूर्व' जैसे सम्मेलन में शक्ति का विभाजन | सुख की कल्पना के पर्दे के पीछे खडा दुःख का स्तूप हो रहा है। इन सभी संकीर्णताओं से अलग खड़े मुनि | है। विशुद्धसागर जी समाज के एकीकरण के लिए अपने | जिसे अध्यात्मरस की मिठास मिलने लगती है वह अध्यात्म को समर्पित भाव से उपयोग करके आत्मसाधना | पदार्थों के सम्मोहन से ऊपर उठ जाता है। वैराग्यभाव से में निरत हैं। निजनिधि की तलाश में वह आत्म अन्वेषण करता हआ इष्टोपदेश भाष्य की पाण्डुलिपि पढ़कर मुझे इस | इष्ट-उपदेश की ओर उन्मुख होता है जो उसका कल्याणकारी प्रज्ञापुरुष की प्रतिभा का आभास हुआ और सिर श्रद्धा से होता है। दूसरे शब्दों में जैसे-जैसे इन्द्रिय-भोग से रुचि झुक गया। इष्टोपदेश को पढ़कर ऐसा लगता है कि पूज्यपाद | घटती जाती है। आत्म-प्रतीति उसी अनुपात में बढ़ती जाती स्वामी ने आ. कुन्दकुन्द देव के समयसार, प्रवचनसार आदि | है। 'आत्म-संवित्ति' का वैभव कितना विराट और अनन्त सितम्बर 2007 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36