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है, एक गाथा में कह देना यह पूज्यपाद स्वामी की विलक्षण । है । शुद्धात्मानुभूति ही थी ।
वरं व्रतैः पदं दैवं नाव्रतैर्वत नारकं । छाया तपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान ॥ जिसप्रकार छाया और धूप शान्ति व कष्ट देने के लिए कारणभूत होते हैं उसीप्रकार व्रतों सहित जीवन स्वर्गादि सुखों के साथ मोक्ष सुख का देने वाला होता है, जबकि व्रतरहित जीवन नरकादि दुःखों को भोगने के लिए अभिशप्त रहता है। अतएव व्रतों का आचरण ही श्रेष्ठकर होता है ।
ऐसे अध्यात्मग्रन्थ 'इष्टोपदेश' पर भाष्य लिखना मुनि श्री का अकारण नहीं है । इस रचनाधर्मिता से अन्य भव्य जीवों की कल्याण भावना दूसरे नम्बर पर है, प्रथमतः यह मुनि श्री का अपने भावों को विरक्ति और वीतरागता की ओर उन्मुख करते हुए आत्मस्थ होने का एक सफल पुरुषार्थ है। योगीजन आत्मबल को ज्ञान से सुद्दढ़ करते हैं। केवल उक्त दो गाथाओं के भाष्य में मुनि श्री ने अनेक आगम ग्रन्थों के सन्दर्भ देकर अपने चिन्तन को विस्तार दिया है। उन्होंने अपने भाष्य के द्वारा मुमुक्षुजनों और साधकों को इस बात के लिए पक्का कर दिया है कि ९. कषायों की मृगमरीचिका तो देखिए कि जैसेइन्द्रिय-विषय सुखपराधीन, क्षणिक, अन्तफल दुःखरूप | जैसे जीवनकाल बीतता जाता है, आयुक्षय और धनवृद्धि और पाप कर्मविपाकी हैं जबकि आत्म-सुख निराबाध, होती जाती है परन्तु धनाभिलाषी लोभी पुरुष धनको, जीवन स्वाधीन, शाश्वत और सदैव सुखरूप रहने वाला है । वह से ज्यादा महत्त्वपूर्ण समझता हुआ, जीवन के इष्ट कल्याण आत्मसुख व्रतरूप संयम के परिपालन से ही प्राप्त किया के लिए पुरुषार्थ नहीं करता । लोभ कषाय का तीव्र संस्कार जा सकता है। कि धन संरक्षण में जीवन ही खो देता है ।
मुनि समतासागर जी ने इष्टोपदश की गाथाओं पर सरल हिन्दी दोहा लिखकर इसे आचार्य पूज्यपाद की जीवन साधना से उद्भूत एक ज्योतिर्मयी कृति कहा है जिसकी एक-एक पंक्ति में मुक्तिद्वार का दर्शन होता है इष्टोपदेश ग्रन्थ की प्रमुख विशेषताएँ जिन्हें भाष्य के द्वारा खुलासा किया गया है
१. गूढ़ सैद्धान्तिक विषयों को श्री पूज्यपाद स्वामी ने लोक व्यवहार के पायदान पर अधिष्ठितकर सरल और व्यावहारिक उदाहरणों के द्वारा जीवन से जोड़ा है।
२. प्रत्येक गाथा का भाषासौष्ठव कसा हुआ परन्तु सरल है तथा भाव प्रवणता से भरा है ।
३. विचार शोधन के विविध आयामों के माध्यम से जन-जीवन की सांसारिक दुरूहता को सुलझाने में प्रत्येक गाथा एक सूत्र की भांति है जिसमें शब्द कम रहस्य अधिक
22 सितम्बर 2007 जिनभाषित
४. गाथाएँ- वीतरागता का संदेश देती हुईं प्रकाश स्तम्भ की भांति जीवन का मार्ग प्रशस्त करतीं हैं। ५. भाष्य के पहले गाथाओं का हिन्दी पद्यानुवाद, गाथा के अर्थ को सुस्पष्ट करता है ।
६. आचार्य पूज्यपाद स्वामी अनेक शङ्काएँ उठाते हैं और उनके समाधान में एक नई गाथा का सृजन करते हुए ग्रन्थ को आगे बढ़ाते हैं। यह ग्रन्थ की शैलीगत विशेषता है। जैसे चिदानन्द स्वरूप की प्राप्ति कैसे होती है - दृष्टान्त द्वारा समझाया कि जिसप्रकार सुवर्ण रूप पाषाण में योग्य उपादानरूप कारण के संबंध से पाषाण सुवर्णमय जाता है उसीप्रकार द्रव्यादि चतुष्टय (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) के सुयोग्य होने पर निर्मल चैतन्य स्वरूप आत्मा की उपलब्धि हो जाती है।
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७. गाथाओं में वैराग्य वर्णन, तत्त्व-चिन्तन समाया हुआ है जो विषयासक्ति में मूर्च्छित पुरुष की मूर्च्छाका भंजनकर स्वरूप प्राप्ति के मार्ग का उद्बोधन देतीं हैं ।
८. रोग के समान भोग भी चित्त में उद्वेग उत्पन्न करते हैं।
१०. आत्मध्यान से अभेदात्मक उपयोग की स्थिर दशा प्राप्त करना और संसार के संकल्प विकल्पों से रहित होकर एवं निरंजन आत्मा का अनुभव करना इस ग्रन्थ का इष्ट लक्ष्य है। आत्मसंसिद्धि के लिए इस ग्रन्थ की आध्यात्मिक संरचना का ताना-बाना बुना गया है। भाष्यकार मुनि श्री विशुद्धसागर जी ने प्रस्तुत भाष्य में आत्म-चिन्तन के फलक पर एक वैचारिक क्षितिज प्रस्तुत किया। मन्थन करके अध्यात्म का नवनीत पाने का एक सफल पुरुषार्थ किया। और गाथाओं के प्रतिपाद्य विषय को अनेक उदाहरणों और सन्दर्भों द्वारा विस्तारित किया है। इस भाष्य को पढ़कर तत्त्व जिज्ञाषु निश्चित् ही संयम, तप और त्यागवृत्ति की ओर अभिमुख होता हुआ उस मार्ग पर बढ़ने का आत्मबल जुटाता है जो मोक्षपथ की ओर जाता है। आत्म-चिन्तन से कर्म निर्जरा का एक सबल निमित्त साधक को भाष्य
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