Book Title: Jinabhashita 2007 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ लिए बना ही नहीं है। कुछ लोगों या प्रजातियों को छोड़ । सिफारिश करते हैं। लेकिंन क्या इनमें से सब लोग जीवों दें, तो सिर्फ मांस पर कोई जीवित नहीं रह सकता । विशुद्ध मांसाहारी लोग भी मांस के साथ सलाद-फल आदि के रूप में वनस्पति का सेवन करते ही हैं । वनस्पति से प्राप्त फाइबर के बगैर मांस उनकी आंतों में ही फँसकर रह जाएगा । सुस्वाद भी नहीं लगेगा । के हितैषी हैं? मुझे तो जानकरी है कि प्रचार के लिए ऐसी संस्थाओं से जुड़े हुए कई लोग मांसाहार के बिना तृप्ति ही नहीं पाते। ये संस्थाएँ बहुत से लोगों के लिए राजनीतिक रोटियाँ सेंकने या अन्य कोई निजी स्वार्थ साधने का साधन बनी हुईं हैं। जबकि आज शाकाहार अपनाना बहुत जरूरी है । पशु-पक्षियों के हितों की रक्षा के लिए 'पेटा' जैसी संस्थायें हैं। मेनका गांधी जीवों के लिए काम कर रही । सितारे तरह-तरह के पोज बनाकर जीवों पर दया की कहाँ तक आपका शासन व अधिकार उन दिनों मिथिला में राजा जनक का राज्य था । राजा जनक अपनी न्यायप्रियता और धर्म - प्रेम के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे । वे वैराग्य और निःस्पृहता के आर्दश माने जाते थे। अपनी देह तक को वे पर जानते थे। इसी कारण विद्वान् उन्हें 'विदेह' सम्बोधित कर बहुत सम्मान दिया करते थे। वास्तव में वे 'घर में ही वैराग्य' की जीवित मूर्ति थे । उनके राज्य में चार विद्यापीठ व अनेक गुरुकुल थे । एक समय दो गुरुकुलों के ब्रह्मचारियों में आपस में वाद-विवाद हुआ, फिर हाथापाई और मारपीट होने लगी। अन्त में एक गुरुकुल के स्थान को क्षति करने की शिकायत राज अधिकारियों तक पहुँची। फलतः उनके एक प्रमुख नेता बटु को आरक्षक ने कैदकर राजा जनक के सामने प्रस्तुत किया। जब उस निर्भीक नवयुवक बटु ने कथित आरोप स्वीकार किया तो राजा जनक ने उसे अपने राज्य से बाहर निकल जाने का कड़ा दण्ड सुना दिया। बटु शास्त्रज्ञ भी था । वह विनम्रता से बोला- 'हे राजन् ! मुझे पहिले बताइये कि आपका शासन व अधिकार कहाँ तक है जिससे कि मैं उस शासन की सीमा से परे चला जाऊँ ।' दरबारियों की दृष्टि में यह प्रश्न साधारण था, किन्तु राजा जनक असाधारण विद्वान् थे, वे सोच-समझकर ही उत्तर दिया करते थे। उन्होंने सोचा तो पाया कि प्रकृति के जल, थल, नभ, सूर्य, चन्द्र आदि अनेक उनके शासन व अधिकारों से परे हैं। वे सब एकदम स्वतंत्र हैं। वे मेरे अधिकार में नहीं हैं। फिर पुरजन, परिजन व स्वजन की बात ही क्या ? Jain Education International 'दैनिक भास्कर' भोपाल, 29 जुलाई 2007 से साभार वे तो स्पष्टतः पर हैं। फिर और भी गहराई में उतरे तो पाया कि उनका स्वयं का तन, यौवन और जीवन क्षणभर भी उनके शासन व अधिकार के घेरे में नहीं है । यह तथ्य जानकर उनका मुख मण्डल गम्भीर हो गया। फिर बटु से बोले- 'हे विद्वान् बटु ! तुमने ऐसा प्रश्न पूछा है कि मैं निरुत्तर सा हो गया हूँ । सच पूछो तो मेरे शासन व अधिकार में न कोई भू-कण है और न तुच्छ तृण, और न स्वल्प क्षण ही है, इन्हें अपना व अपने शासन का मानना केवल अज्ञान और अहंकार है । ' बटु विनयपूर्वक बोला- 'हे धर्मज्ञ राजन् ! आपके प्रत्येक शब्द परमार्थ में डूबे, खरे सत्य हैं किन्तु मैं तो आपकी दण्ड-व्यवस्था की प्रतीक्षा में हूँ । ' राजा जनक धीर और गम्भीर वाणी में बोले- तो सुनो बटु, तुम अपने गुरुकुल जाओ और पठन-पाठन में चित्त दो । बस, याद रखो कि- 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।' तुम शान्ति से अध्ययन चाहते हो तो दूसरों के प्रति भी उसके प्रतिकूल आचरण न होने दो । वह विनयपूर्वक बोला- 'हे महाराज! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपकी आज्ञा का जीवनपर्यन्त अक्षरक्षः पालन करूँगा ।' और वह योग्य नमस्कार कर अपने गुरुकुल की ओर चला गया। राजा के ज्ञान चक्षु बटु के निमित्त से खुले और बटु की आचरण-दृष्टि राजा के निमित्त से खुली। सच है- 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।' बटु एक दिन मिथिला का परम विद्वान् व राजपुरोहित हुआ । श्री नेमिचन्द्र पटोरिया- कृत 'बोध कथामंजरी' से साभार For Private & Personal Use Only सितम्बर 2007 जिनभाषित 15 www.jainelibrary.org

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