Book Title: Jinabhashita 2007 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ श्रीज्ञानाष्टकम् (वसन्ततिलका छन्द) मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (आचार्य श्री विद्यासागर जी संघस्थ) श्रीमच्चतुर्भुजभुजारमणास्पदीया । (शुद्धात्मवृत्तिरसिकः) शुद्धात्मा में प्रवृत्ति करने में जिन्हें सौभाग्यवद्-घृतवरी तनयश्च तस्याः। रस आता है (तत्) उन (ज्ञानसागरयते:) श्रीज्ञानसागर योऽभूत् कवित् कविवरो यमधर्ममस्तु आचार्य के (पदयोः) चरणों में (नमोऽस्तु) मेरा नमन् हो तज्ज्ञानसागरयतेः पदयोर्नमोऽस्तु॥१॥ ताकि (आत्मनः) मेरी आत्मा का (श्रियं) कल्याण (अस्तु) अन्वयार्थ- (श्रीमच्चतुर्भुजभुजारमणास्पदीया) श्रीमान् । चतुर्भुज की भुजाओं में रमण के स्थान को प्राप्त...(च) पंचाक्षकृष्णफणिने प्रथुवैनतेयः तथा (सौभाग्यवघृतवरी) सौभाग्यवती घृतवरी स्त्री थी कामानलस्य जलदो जिनभानुभायः। (तस्याः ) उनका (तनयः) पुत्र (य:तु) जो कि (कवित्) गङ्गापवित्रजलवद्विमलं मनस्तु आत्मा को जानने वाला (कविवरः) कवियों में श्रेष्ठ तज्ज्ञानसागरयतेः पदयोर्नमोऽस्तु॥४॥ (यमधर्मम:) यमरूपी धर्म की लक्ष्मी वाला (अभूत्) था अन्वयार्थ- (यः) जो (पंचाक्षकृष्णफणिने) पाँच (तत्) उन (ज्ञानसागरयते:) श्रीज्ञानसागरयति के (पदयोः) इन्द्रियरूपी काले सर्प के लिये (प्रथुवैनतेयः) विशाल चरणों में (नमोऽस्तु) मेरा नमस्कार हो।। गरूड़ के समान हैं (कामानलस्य) जो काम-वासना रूपी भावार्थ- श्रेष्ठी चतुर्भुज और माता घृतवरी के श्रेष्ठ अग्नि को बुझाने के लिये (जलदः) मेघ के समान हैं पुत्र पं. भूरामल हुए हैं वही आगे जाकर श्री ज्ञानसागर (जिनभानुभा) जिनकी आभा जिनेन्द्रभगवान् रूपी सूर्य के आचार्य कहलाये। समान है (मनः तु) तथा जिनका मन (गङ्गापवित्रजलवत्) वीरोदयप्रभृतयो भुवि यस्य शस्ता गङ्गा के पवित्र जल के समान (विमलं) निर्मल है, (तत्) ग्रन्थाश्च लक्षणभृता विदुषां प्रसक्ताः। | उन (ज्ञानसागरयते:) श्री ज्ञानसागर आचार्य के (पदयोः) व्याहन्ति मंक्षु तिमिरारि रिवाघवस्तु | चरणों में (नमः अस्तु) मेरा नमन् हो। तज्ज्ञानसागरयतेः पदयोर्नमोऽस्तु॥ २॥ भूरामलेऽपि विमल: कलिरूढिपङ्का अन्वयार्थ- (यस्य) जिनके (ग्रन्थाः) ग्रन्थ (वीरोदय ज्ञानार्णवे विमलचिन्मयभङ्गलीनः । प्रभृतयः) वीरोदय आदि (भुवि) पृथ्वी पर (शस्ताः) यस्मात् सदैव कुशलं जगतां समस्तु प्रशंसनीय हैं, (लक्षणभृताः) व्याकरण साहित्य आदि के तज्ज्ञानसागरयते: पदयोर्नमोऽस्तु॥५॥ लक्षणों से परिपर्ण हैं. तथा (विदषां प्रसक्ताः ) विद्वानों को अन्वयार्थ- (भूरामले अपि) जो ब्रह्मचारी अवस्था आसक्त करने वाले हैं (तु) और जो (मंक्षु) शीघ्र ही | में पं. भरामल होने पर भी (कलिरूढिपङ्गात) कलिकाल (तिमिरारिः इव) सूर्य के समान (अघवस्तु) पाप | सम्बन्धी रूढ़ि के कीचड़ से (विमल:) रहित रहे, जो अन्धकाररूपी पदार्थों का (व्याहन्ति) नाश करने वाले हैं (ज्ञानार्णवे) श्री ज्ञानसागर होने पर (विमलचिन्मय भङ्गलीन:) (तत्) उन (ज्ञानसागरयते:) श्री ज्ञानसागर मुनिराज के | निर्मल चिन्मय की तरङ्गो में लीन रहे (यस्मात्) जिनसे (पदयोः) चरणों में (नमोऽस्तु) नमस्कार हो। (सदैव) हमेशा (जगतां) इस जगत का (कुशलं) कल्याण भिन्नार्त्तरौद्रहृदयो जननार्त्तदूरो। (समस्तु) होता हो (तत्) उन (ज्ञानसागरयते:) श्री ज्ञानसागर मिथ्याप्रपञ्चरहितः शुभभावपूरः। आचार्य के (पदयोः) चरणों में (नमः अस्तु) मेरा नमस्कार शुद्धात्मवृत्तिरसिकः श्रियमात्मनोऽस्तु हो। तज्ज्ञानसागरयते: पदयोर्नमोऽस्तु॥३॥ चित्ते दया विनिवसत्यभिभूतमेति अन्वयार्थ- (भिन्नार्तरौद्रहृदय:) जिनका हृदय आर्त, दष्टापकीर्तिरघताऽपि विभीतिमेति। रौद्रध्यान से रहित है, (जननातंदूरः) जो जन्म के दुःखों आचार्यवर्य! समतासुखवस्तु नस्तु से दूर हैं (मिथ्याप्रपञ्चरहितः) जो मिथ्या प्रपञ्चों से रहित तज्ज्ञानसागरयते: पदयोर्नमोऽस्तु॥६॥ हैं, (शुभभावपूरः) जो शुभभावों से वृद्धिंगत हैं 16 सितम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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