Book Title: Jinabhashita 2007 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ हृदय तो भीग ही जाता है समूची धरती भी हरी भरी हो जाती है। ठीक इसीतरह इस वर्षावास में झरने वाली गुरुवरों की प्रेम करुणामयी धर्मदेशना से प्राणिमात्र का हृदय भीग जाता है और जीवन धर्मसंस्कारों से हरा भरा हो जाता है। आगम शास्त्रों के अनुसार वर्षायोग की स्थापना करने के लिए क्षेत्रकाल की पूर्वापर परिस्थितियों का विचारकर श्रावक समाज से सहमति लेकर चातुर्मास स्थापना की घोषणा की जाती है । तत्पश्चात् श्रावकगण मंगलकलश स्थापन और दीपप्रज्ज्वलन करते हैं । मुनिसंघ आगमविहित अपना भक्तिपाठ करके चातुर्मास की विधि सम्पन्न करते हैं । मुनिसंघ को स्वाध्याय हेतु शास्त्र भेंट किये जाते हैं। मुनि संघ का चातुर्मास के संदर्भ में उपस्थित जन समुदाय को धर्मोपदेश प्राप्त होता है। जिस दिन चातुर्मास का स्थापन 6 भगवान् मुनिसुव्रतनाथ जन्म जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के मगध देश में एक । राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। पारणा के दिन वे राजगृह नाम का नगर है । उसमें हरिवंश शिरोमणि सुमित्र नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम सोमा था। आश्विन शुक्ला द्वादशी के दिन उस महारानी प्राणत स्वर्ग के इन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप दिया। श्री मल्लिनाथ तीर्थंकर के बाद जब चौवन लाख वर्ष बीत चुके तब मुनिसुव्रतनाथ भगवान् का जन्म हुआ था, उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी । उनकी आयु तीस हजार वर्ष की थी, शरीर की ऊँचाई बीस धनुष तथा कान्ति मयूर के कण्ठ के समान नीली थी । कुमारकाल के सात हजार पाँच सौ वर्ष बीत जाने पर वे राजपद को प्राप्त हुए। इसप्रकार जब उनके पन्द्रह हजार वर्ष बीत गये तब किसी दिन गर्जती हुई घनघटा के समय उनके यागहस्ती ने वन का स्मरण कर खाना पीना बन्द कर दिया। महाराज मुनिसुव्रतनाथ अपने अवधिज्ञान से उस हाथी के मन की सब बातें जान गये । इसीकारण से उन्हें आत्मज्ञान हो गया जिससे वे अपने पुत्र युवराज विजय के लिए राज्य देकर नील नामक वन में पहुँचे और वहाँ बेला का नियम लेकर वैशाख कृष्ण दशमी के दिन सायंकाल के समय एक हजार मुनिराज राजगृह नगर में गये। वहाँ सुवर्ण के समान कान्तिवाले वृषभसेन राजा ने उन्हें आहारदान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। इस तरह छद्मस्थ अवस्था के ग्यारह माह बीत जाने पर वैशाख कृष्ण नवमीं के दिन शाम के समय अपने दीक्षावन में बेला का नियम लेकर चम्पक वृक्ष के नीचे ध्यानलीन हुए और घातिया कर्मों का क्षयकर केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान् के समवशरण की रचना हुई जिसमें तीसहजार मुनि, पचासहजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। धर्म का उपदेश देते हुए उन्होंने चिरकाल तक आर्यक्षेत्र में विहार किया। जब उनकी आयु एक माह की शेष रह गई तब सम्मेदशिखर पर जाकर उन्होंने एक हजार राजाओं के साथ प्रतिमायोग धारण किया और फाल्गुन कृष्ण द्वादशी के दिन रात्रि के पिछले (प्रदोष काल ) भाग में अघातियाँ कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त किया । सितम्बर 2007 जिनभाषित । होता है उस दिन मुनिगण अपना उपवास रखते हैं। जिस स्थान पर श्रावकों को इस वर्षायोग के समय त्यागी, व्रती, मुनि, आचार्यों का समागम मिल जाता है वहाँ के श्रावक जन अत्यन्त उत्साहचित्त आनन्दित रहते हैं। अपने नगर में इस समागम को पाने के लिए श्रावकगण बार-बार मुनि संघों के पास जाकर निवेदन करते हैं, उन्हें लाने का प्रयास करते हैं और जिस किसी नगर में चातुर्मास का सुयोग बन जाता है तो श्रावक समाज पूरे चार माह उसे उत्सव का रूप दे देती है। इसतरह से हर दृष्टि से वर्ष के इन चार माहों का महत्त्व है। इस परम पुनीत चातुर्मास के पावन क्षणों में हम अपनी हृदयभूमि को उर्वरा करें ताकि उसमें बोए गए धर्म-संस्कार के बीज भक्ति, विनम्रता और आध्यात्मिकता के फलों से जीवन को समृद्ध कर सकें। Jain Education International For Private & Personal Use Only मुनि श्री समतासागरकृत 'शलाका पुरुष' से साभार www.jainelibrary.org

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