Book Title: Jinabhashita 2006 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 2
________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे 46 38 50 37 सब में वह ना योग्यता, मिले न सब को मोक्ष। थकता, रुकता कब कहाँ, ध्रुव में नदी प्रवाह। बीज सीझते सब कहाँ, जैसे टर्रा मोठ॥ आह वाह परवाह बिन, चले सूरि शिव-राह॥ 47 सब गुण मिलना चाहते, अन्धकार का नाश। बूंद-बूंद के मिलन से, जल में गति आ जाय। मुक्ति स्वयं आ उतरती, देख दया का वास॥ सरिता बन सागर मिले, सागर बूंद समाय॥ 39 48 व्यर्थ नहीं वह साधना, जिसमें नहीं अनर्थ। कंचन पावन आज पर, कल खानों में वास। भले मोक्ष हो देर से, दूर रहे अघ गर्त॥ सुनो अपावन चिर रहा, हम सब का इतिहास॥ 40 49 जलेबियाँ ज्यों चासनी, में सनती आमूल। किस किस को रवि देखता, पूछे जग के लोग। दया-धर्म में तुम सनो, नहीं पाप में भूल॥ जब-जब देखू देखता, रवि तो मेरी ओर॥ 41 संग्रह पर का तब बने, जब हो मूर्छा-भाव। सत्कार्यों का कार्य है, शान्ति मिले सत्कार। प्रभाव शनि का क्यों पड़े? मुनि में मोहाभाव॥ दुष्कार्यों का कार्य है, दुस्सह दुख 42 51 किस-किस का कर्ता बनें, किस-किस का मैं कार्य। बनो तपस्वी तप करो, करो न ढीला शील। किस-किस का कारण बनूँ, यह सब क्यों कर आर्य?॥ भू-नभ मण्डल जब तपे, बरसे मेघा नीर ॥ 43 पर का कर्ता मैं नहीं, मैं क्यों पर का कार्य। घुट-घुट कर क्यों जी रहा, लुट-लुट कर क्यों दीन? कर्ता कारण कार्य हूँ, मैं निज का अनिवार्य॥ अन्तर्घट में हो जरा, सिमट-सिमट कर लीन । 44 153 लघु-कंकर भी डूबता, तिरे काष्ठ भी स्थूल। बाहर श्रीफल कठिन ज्यों, भीतर से नवनीत। "क्यों" मत पूछो, तर्क से स्वभाव रहता दूर॥ जिन-शासक आचार्य को, विनD, नमूं विनीत ॥ 45 254 फूल-फलों से ज्यों लदें, घनी छाँव के वृक्ष। सन्त पुरुष से राग भी, शीघ्र मिटाता पाप। शरणागत को शरण दे. श्रमणों के अध्यक्ष॥ उष्ण नीर भी आग को, क्या न बुझाता आप? || किस-किस का कर्तब- बहस 52 'सर्वोदयशतक' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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