Book Title: Jinabhashita 2005 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 6
________________ कलकत्ता में टंगरा और गार्डन रिज, मद्रास में पैराम्बर, सैदापेट | माता-पिता के बूढ़े और अनुपयोगी हो जाने पर उन्हें भी कत्लखाने एवं को गियर है। जिनमें प्रतिदिन 1 लाख 50 हजार पशु मौत | भिजवा दिया जाय? पर यह संभव नहीं है। तथ्य तो यह है कि के घाट उतार दिये जाते हैं। अहिंसा की इस भूमि पर हिंसा का कोई भी पशु कभी भी, किसी स्थिति में अनुपयोगी नहीं होता। यह तांडव कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है ? हिंसा की ये मशीनें | वह आपसे जितना लेता है, जीवन के आखिरी क्षणों तक उससे कत्लखानों में निरन्तर चल रही हैं। अन्य देशों के कत्लखाने तो | भी ज्यादा देकर जाता है। गौवंश तो कितना क्या देता है, हम फिर भी किसी न किसी दिन बंद रखे जाते हैं- जानकारियाँ सभी जानते हैं, इसलिए इस धरती पर गौवंश की, पशुसंपदा कहती हैं कि जापान, आयरलैंड, फ्रांस, पोलेण्ड और इंडोनेशिया | की और पेड़-पौधों की रक्षा होनी चाहिये। धरती वधशाला में प्रत्येक रविवार; सीरिया, अरब में हर शुक्रवार, आस्ट्रिया | विहीन हो ऐसा संकल्प-अभियान छेड़ा जाना चाहिये। और जर्मनी में हर शनिवार व रविवार, पाकिस्तान में प्रत्येक | इस संदर्भ में यदि कोई ये तर्क देता है कि यह सब बंद मंगलवार व बुधवार तथा श्रीलंका में प्रतिपदा अष्टमी, अमावस्या | हो जायेगा तो अनेक लोगों की आजीविका छिन जायेगी, वह और पूर्णिमा को कत्लखाने पूर्णत: बंद रखे जाते हैं। पर इस देश | भूखे मर जायेंगे, तो इसका समाधान यह है कि हम तो अपने में ऐसा कोई भी दिन सुनिश्चित नहीं है कि जिसमें कत्लखाने बंद | चहे को बचा रहे हैं क्योंकि बिल्ली चहे के बिना फिर भी पेट रखे जाते हों। इमारती लकड़ी सागोन का एक पेड़ कटता है तो | भर सकती है, पर बिल्ली की खुराक में यदि चूहा चला गया तो काटनेवालों को सजा दी जाती है और यहां सरेआम पशु काटे | फिर हमारे पास कुछ नहीं बचेगा। जा रहे हैं उन्हें कोई भी सजा नहीं। गहन अनुसंधान के बाद तो मेरे गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के करुण वैज्ञानिकों ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि भूकंप आने में एक | हृदय से मांस-निर्यात के प्रतिबंध की यह आवाज निकली और कारण कत्लखानों में होनेवाली पशुहिंसा भी है। पशुओं की यह अभियान का रूप लेती जा रही है। उनका उद्घोष है कि पीड़ा की तरंगों से धरती में कंपन होता है और यह कंपन भी मांस-निर्यात नीति पर प्रतिबंध ही देशोत्थान का मंगलाचरण है। भूकंप का कारण बनता है। जंगली पशुओं की सुरक्षा के लिए आचार्यश्री का कहना है कि मांसनिर्यात नीति पर प्रतिबंध का तो फिर अभ्यारण्य बन गये, पर पालतू पशुओं की क्या सुरक्षा? कार्य पक्ष-विपक्ष की राजनीति से हटकर हो । पार्टीगत राजनीति इस धरती पर अब पालतू पशुओं के लिये भी अभ्यारण्य खुलने | से परे इसे एक सामहिक आह्वान का स्वरूप देना चाहिये, चाहिये। देश के महानगरों में यदि बड़े-बड़े कत्लखाने सरकार | क्योंकि यह कार्य सत्ता-संघर्ष का कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं, ने खुलवा दिये, तो अभ्यारण्य के रूप में बड़ी-बड़ी गौशालायें | अपित लाखों-लाख पशओं की करुण पकार है. उनकी जीवन भी उन स्थानों पर खुलनी चाहिये। अब तो एग्रीकल्चर का ही | रक्षा का सवाल है। इस अभियान में किसी एक की आवाज अर्थ बदला जा रहा है। अण्डों की खेती, मछलियों की खेती, नहीं, बल्कि समस्त धर्माचारियों की आवाज है। उन सभी का केचओं की खेती, सुअर की खेती। क्या फार्मिंग (खेती) का | समर्थन/सहयोग ही इस अभियान को गति प्रदान कर रहा है। अर्थ यही है ? एग्रीकल्चर का भले ही अब यह अर्थ निकाला इस विषय की गंभीरता को समस्त बौद्धिकवर्ग, व्यापारीवर्ग एवं जा रहा है, पर अनीतिरूप कल्चर से हम कभी एग्री (सहमत) कृषकवर्ग समझें तथा इसे आगे बढ़ाने में अपने समय और श्रम नहीं होंगे। का दान करें। ____ पशु-संहार और फिर विदेशों के लिए मांस-निर्यात भारतीय ___ सद्भावना से भरा यह अभिवादन अहिंसा की ज्योति को संस्कृति के लिए कलंक है। यह विषय मांसाहार का नहीं, जलाये रखने लिए है। इस ज्योति को सतत् जलते रखने के लिए मांस-निर्यात (व्यापार) का है। खाना तो अपनी व्यक्तिगत सत्ता/सरकार चिमनी बनकर सहायक हो, आँधी बनकर बुझाये परिस्थिति या विचारधारा हो सकती है, जिसे सात्विक और नहीं। अर्थोपार्जन की अंधी-आँधी में यह ज्योति बुझने न पाये। शुद्ध भोजन की प्रेरणा देकर, हृदय परिवर्तित कर बदला जा इसलिए जाति, वर्ग और सम्प्रदाय के भेदभाव से परे समूची सकता है, उसे किसी अभियान या आंदोलन की जरूरत नहीं। जनशक्ति को जागने की जरूरत है। जागत जन-शक्ति ही धरती किन्तु मांस-निर्यात जैसी निन्दनीय नीति को बदलने के लिए | पर परिवर्तन लाती है। हम अपनी प्राचीन संस्कृति को पहचानें सशक्त आंदोलन होना चाहिये। यह बात भी समझने जैसी है कि और अपने देश से होनेवाले क्रूरतापूर्ण मांसनिर्यात के प्रतिबंध में हिन्दुस्तान के समस्त मांसाहारीजनों के लिए भी इतने कत्लखानों सम्पूर्ण शक्ति को लगायें, ताकि फिर हमारा देश सात समन्दर की जरूरत नहीं है। यह सब तो विदेशों की पूर्ति के लिए है। पार धरती तक अपनी करुणा का, करुणा के संदेशों का निर्यात इस विषय में कोई व्यक्ति तर्क देता है कि बूढे और अनुपयोगी करे। पशु हो जाने पर उनका क्या उपयोग? पर यदि ऐसा ही है तो प्रस्तुति : अशोक कौछल मण्डला, (म० प्र०) 4 मई 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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