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गतांक से आगे
पूजा में प्रयुक्त प्रतीक : एक विश्लेषण
ब्र. भरत जैन, शोध शास्त्र 13. कलश: कलश मंगल एवं पूर्णता के प्रतीक । जिनेन्द्र के बताये मार्ग पर चलेंगे तो उनके ही समान होते हैं। मानव जब परमात्मा की सत् साधना करता है तो | त्रिलोकीनाथ बन जायेंगे। इसी उद्देश्य को लेकर भगवान के पूर्ण या परमात्मा हो जाता है। यश-परिवर्द्धन के लिये कलश | ऊपर तीन छत्र लगाते हैं। ध्यान रहे, नीचे सबसे बड़ा छत्र, का प्रयोग जैनपूजा में किया गया है।
उसके ऊपर थोड़ा छोटा और सबसे ऊपर सबसे छोटा छत्र 14. ध्वजा : मन्दिरजी में हो रही भक्ति, पूजन, मंत्र | लग
| लगाना चाहिये। ये लोक के अनुसार हैं। आदि की शब्द-वर्गणा को मन्दिर के ऊपर की ओर खींचकर 18. चौसठ चंवर : भगवान् पर दुरते हुये चौंसठ ध्वजा के माध्यम से वह पुदगल शब्द-वर्गणा सर्वत्र हवाओं | चंवर चौसठ ऋद्धियों के प्रतीक हैं। अर्थात् जिनेन्द्र भगवान को स्पर्शित होकर व्याप्त होती है और जहाँ-जहाँ वह हवा | चौसठ ऋद्धियों के नाथ बन गये हैं। सारी ऋद्धियाँ उनके जाती है वहाँ-वहाँ का वातावरण शुद्ध,शान्त, सात्विक, धार्मिक | चरणों की दासी बनकर उनकी सेवा में खड़ी हैं। चंवर को होता जाता है। ध्वजा का नाम पताका भी है. इससे मंदिर का | देखने से प्रेरणा मिलती है कि हमें सांसारिक भौतिक सम्पदा पता भी प्राप्त होता है।
के पीछे नहीं भागना चाहिये, क्योंकि उनके पीछे भागने से 15. मानस्तम्भ : मानस्तम्भ अर्थात् जिसको देखकर
अर्थात् ऋद्धि के पीछे भागने से आत्म-तत्व की, शाश्वत् सुख मान स्तम्भित हो जाता है, वह मानस्तम्भ कहलाता है। मन्दिर
की उपलब्धि नहीं होती, वरन् आत्मिक-साधना करने से जी में प्रवेश समर्पण, श्रद्धा, आस्था के भावों को लेकर करना
सारी ऋद्धियाँ, भौतिक सम्पदाएँ स्वतः हमारे चरणों में आ चाहिये। अपने अहंकार, मान-कषाय आदि को मन्दिर के
जाएंगी। इसी बात के प्रतीक के लिये चौसठ चंवर होते हैं। बाहर छोड़कर मन्दिर में प्रवेश करें। जिनेन्द्रमहिमा दर्शाने का
यह भगवान् का प्रतिहार्य भी है। समवसरण में आठ-आठ भी एक माध्यम मानस्तम्भ होता है और जिन लोगों का | यक्ष आठों दिशाओं में चंवर ढुराते हैं। मन्दिर में प्रवेश वर्जित है, वे मानस्तम्भ को देखकर परमात्मा 19. भामण्डल : समवसरण में भगवान् के पीछे के दर्शन का लाभ लेते हैं।
| भामण्डल होता है, जिसमें भव्य जीवों को अपने सात भवों 16. शिखर : जिस प्रकार समवसरण में भगवान के
का (तीन अतीत के, तीन भविष्य के और एक वर्तमान का) ऊपर अशोक वृक्ष होता है, उसी प्रकार मन्दिर में अशोक
अवलोकन होता है, जो सम्यक्त्व में कारण बनता है। मन्दिरजी वृक्ष के प्रतीक के रूप में शिखर बनाया जाता है एवं जो लोग
में प्रतिमा के पीछे भामण्डल लगाते हैं। उसके बीचों-बीच परिस्थितियोंवश मन्दिर नहीं जा पाते, वे दूर से ही शिखर की
एक काँच का शीशा लगाते हैं। उस पर दर्शन करने वालों वन्दना करके पुण्यार्जन कर लेते हैं और यदि ऊपर से देव
| का प्रतिबिम्ब बनता है। अतः दर्शनार्थी एक दृष्टि शीशे पर आदि के विमान निकलते हैं, तो ऊँचे-ऊँचे शिखर देखकर
बने प्रतिबिम्ब पर डालता है एवं एक दृष्टि भगवान् पर वे भी जिनालय के दर्शन का लाभ उठा पाते हैं। जैसे |
| डालता है, तो प्रेरणा मिलती है कि मेरा जीवन कितना अशोक वृक्ष के नीचे जाने पर सारे शोक नष्ट हो जाते हैं. उसी | निकृष्ट है और परमात्मा का जीवन कितना महान् है। जब प्रकार मन्दिर के शिखर के नीचे जाकर परमात्मा की उपासना
दोनों जीवन की तुलना करते हैं, तो महान् जीवन के प्रति करने से भी सारे शोक नष्ट हो जाते हैं। मन्दिर के शिखर
श्रद्धा बनती है, जो सम्यक्दर्शन की उत्पत्ति में कारण है। प्रकृति से विशुद्ध परमाणुओं को संग्रहित कर मन्दिर में नीचे | इसी उद्देश्य से भगवान् के पीछे भामण्डल लगाते हैं। पहुँचाते हैं, जिससे मन्दिर का वातावरण शुद्ध बना रहता है। 20. गंधकुटी : गंधकुटी वह स्थान है जहाँ पर भगवान्
17. त्रय छत्र : त्रय छत्र भगवान के तीन लोक | का सिंहासन होता है। जिस पर भगवान् चार अंगुल अधर (अधोलोक, मध्यलोक और देवलोक अर्थात् ऊर्ध्वलोक)
में विराजमान होकर उपदेश करते हैं। जिनेन्द्र भगवान् के नाथ स्वामी होने का द्योतक हैं। तीन लोक पर जिनेन्द्र प्रभ | का पद जगत में सर्वोत्कृष्ट पद हैं और उच्च पद में स्थित का एकछत्र राज्य हो गया है एवं तीन छत्र देखकर आत्मशक्ति | आत्मा का विनयपूर्वक सम्मानार्थ उच्च स्थान पर विराजमान को जागृत करने की प्रेरणा मिलती है कि हम भी यदि कर
मई 2005 जिनभाषित 17
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