Book Title: Jinabhashita 2005 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 35
________________ मुक्ति के प्रति अनुराग से ही आत्म कल्याण संभव है संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के अज्ञानुवर्ती शिष्य मुनिश्री प्रमाणसागर जी महाराज द्वारा पर्वतराज सम्मेदशिखर के पादमूल में अवस्थित तेरापंथी कोठी मधुवन के सभागार में आयोजित धर्मसभा में व्यक्त किये विचार ० मुनिश्री प्रमाणसागर जी सम्मेदशिखरजी, आतुरता और आकुलता संसार और मुक्ति एक साथ नहीं मिल सकते। दोनों मन में हैं। एक लंबे अंतराल के बाद वंदना करने जिसके मन में तड़फ होती है, वे ही मुक्ति के मार्ग पर चल का अवसर मिला। आतुरता है कि कितनी जल्दी उन पाते हैं । शब्दों से मुक्ति संभव नहीं है। जो संसार में जीना चरणों को प्राप्त करूँ जो सिद्धालय में विराजमान हैं। चाहता है उसकी मुक्ति, मुक्तिधाम (श्मशानघाट) में ही आकुलता है कि उन महापुरुषों की तरह कब होगी। जन्म-मरण बार-बार होता है, मुक्ति सिर्फ एक सिद्धालय में पहुँचूँ। अरिहंत और सिद्ध भगवंतों ने बार होती है। साधना की शान पर जो चढ़े, वे ही मुक्ति को यहाँ आकर निर्वाण प्राप्त किया। क्या कारण है? पाते हैं। मध्यलोक का वैभव उनके चरणों में था। क्यों उन्होंने परमात्मा से प्रार्थना तो हम करते हैं, परन्तु मन में यहाँ आकर, तपस्या कर निर्वाण प्राप्त किया। संत कुछ और ही कामना रहती है। मुक्ति मार्ग में यह दोहरापन कहते हैं- राज-पाठ, भोग-विलास ही स्थायी नहीं नहीं चलता। बहानेबाजी में इंसान माहिर होता है। नर से है, तब उनसे सुख कैसे मिल सकता है। जब तक नारायण निरंजन बन सकते हैं । यह पुरुषार्थ मनुष्य जीवन बंधन में बंधे रहोगे, तब तक संसार में सुख नहीं। यहाँ में ही है। धर्म की शरण मिली है, बुद्धि मिली है। यह दुःख हा दुःख ह। जब तक आत्मा बंधन से मुक्त नहीं समय पाने का है, खोने का नहीं। यह जो अवसर मिला. होगी, तब तक मुक्ति संभव नहीं है। मानव पर्याय मिली है इसे व्यर्थ में खोना नहीं है। हममें और भगवान में कोई मौलिक अंतर नहीं आत्मकल्याण की दिशा में एक कदम ईमानदारी से है। अंतर सिर्फ इतना है कि उन्होंने विकारों को जीत बढ़ायें, तभी कल्याण संभव है। अपने स्वरूप को लिया है हम विकारों में जी रहे हैं। हमने अपने पहिचानने की कोशिश करें। परमात्मा के अभाव में डरना विकारों को जीत लिया होता, तो हमारा भी स्थान इसी महसूस करोगे, उसी क्षण आपको मुक्ति का मार्ग मिल पर्वत की किसी टोंक पर होता। बहत ही विरल होते जावेगा। भगवान वीतरागी हैं। आप सभी वीतरागी हैं। हैं, जो आवागमन के चक्र से ऊपर उठ पाते हैं। वित्त हटे, आप वीतरागी हो जावेंगे। मुक्ति के प्रति अधिकतर लोग संसार में ही सुख ढूँढ़ते हैं, यदि अनुराग ही हमें एक दिन मुक्ति की राह बतायेगा। संसार में सुख होता तो तीर्थंकर क्यों वन को जाते। जब तक बंधन से मुक्ति नहीं मिलेगी कल्याण संभव प्रस्तुति : अभिनंदन सांधेलीय, नहीं है। पत्रकार-पाटन (जबलपुर) Jain Education International For Private & Personal use only ___www.jainelibrary.org

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