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अर्थात् जिन मनुष्यों में न तो विद्या ही है, न तप, न दान, न ज्ञान, न शील, न गुण और न धर्म ही है । वे इस भूलोक में पृथ्वी के भारस्वरुप मनुष्य के रूप में पशु ही चर रहे हैं ।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्न गुप्तं धनं । विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरुणां गुरुः । विद्या बन्धुजनो विदेश गमने विद्या परा देवता विद्या राजसु पूज्यते न तु धनं विद्या विहीनः पशुः ॥ (भर्तृहरि : नीतिशतक 19)
अर्थात् विद्या ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ रुप है । छिपा हुआ सुरक्षित धन है। विद्या भोग-विलास देने वाली है तथा यश एवं सुख देने वाली है। विद्या गुरुओं की भी गुरु है। परदेश में विद्या ही बन्धुजन है, विद्या सबसे उत्कृष्ट देवता है । राजाओं के मध्य में विद्या ही पूजी जाती है, धन नहीं इसलिए विद्या से हीन मनुष्य पशु है ।
इस प्रकार अनन्त गुणों वाली विद्या है। यह विद्या किस प्रयोजन से ग्रहण की जाय, यह विचारणीय है। कविवर बुधजन जी का मानना है कि
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तजिवै गहिबैं कौ बनै विद्या पढ़ते ज्ञान । (बुधजन सतसई 433) अर्थात् विद्या पढ़ने से जो विवेक या ज्ञान प्राप्त होता है उससे अहित का त्याग और हित का ग्रहण होता है। विद्या वही श्रेष्ठ है जो मुक्ति के लिए हो “सा विद्या या विमुक्तये ।' 20 वीं शताब्दी में ज्ञानरथ के प्रवर्तक परम पूज्य गुरुवर प्रातः स्मरणीय क्षु. श्री 105 गणेशप्रसाद जी वर्णी का मानना था कि " शिक्षा का उद्देश्य शान्ति है। उसका कारण आध्यात्मिक शिक्षा है। आध्यात्मिक शिक्षा से ही मनुष्य ऐहिक एवं पारलौकिक शान्ति का भाजन हो सकता है। " उनके ही अनुसार " आत्महित का कारण ज्ञान है। हम लोग केवल ऊपरी बातें देखते हैं जिससे आभ्यान्तर का पता ही नहीं चलता । आभ्यान्तर के ज्ञान बिना अज्ञान दूर नहीं हो सकता । यदि कल्याण चाहो तो ज्ञान को उतना ही आवश्यक समझो जितना कि भोजन को समझते हो। "
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शिक्षा के लिए अनिवार्य कारक हैंपुस्तक गुरु थिरता लगन मिले सुथाय सहाय । तब विद्या पढ़िवौ बनै, मानुष गति परजाय ॥
(बुधजन सतसई 428) अर्थात् मनुष्य पर्याय में पुस्तक, गुरु, स्थिरता, लगन, योग्य निमित्त की उपयोगिता, स्थान आदि का सहारा मिलने पर विद्या का अध्ययन हो सकता है। प्राचीन काल में तीन कुलों को मान्यता प्राप्त थी
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1. पितृ कुल 2. मातृ कुल 3. गुरु कुल
जिस प्रकार व्यक्ति पितृ और मातृकुल के सम्मान के लिए सचेष्ट रहता था उसीप्रकार गुरुकुल की प्रतिष्ठा को बचाये रखने के लिए प्रयत्नशील तथा सचेष्ट रहता था इसलिए भगवान जहाँ देवता थे वहीं देवतुल्य चार और मानकर उन्हें प्रतिष्ठा दी जाती थी कहा जाता था कि
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1. मातृदेवो भव 2. पितृदेवो भव
3. आचार्यदेवो भव
4. अतिथिदेवो भव ।
शिक्षा सदाचार मूलक होनी चाहिए इसकी चार कसौटियाँ पू. क्षु. श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी ने मानी हैं- 1. धार्मिकता 2. नीतिमत्ता 3. बुद्धिमत्ता 4. आत्म दृढ़ता। अतः व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हेतु ऐसी शिक्षा एवं शिक्षण पद्धत्ति आवश्यक है जो उक्त उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हो। इसके लिए हमारे सम्पन्न समाज को चाहिए कि वह ऐसे नवीन गुरुकुल स्थापित करें, जो पूर्णकालिक शिक्षण पद्धत्ति वाले हों, आवासीय हों, जहाँ शिष्य और गुरु एक साथ रहें । गुरु का शिष्य पर पूर्णकालिक नियंत्रण हो, गुरु की ही आज्ञा सर्वोपरि हो। हमें लौकिक, व्यावसायिक एवं मूल्यपरक शिक्षा की व्यवस्था करना चाहिए ताकि विद्यार्थी विद्यार्जन के बाद न आज के ज्ञान-विज्ञान से शून्य हों और न ज्ञान एवं चारित्र के धन से क्या समाज इस चुनौती को स्वीकार कर एक नयी शिक्षा क्रान्ति का श्रीगणेश करेगा ?
आचार्य विद्यासागर जी के सुभाषित
समता के साँचे में ढला हुआ ज्ञान ही विपत्ति के समय काम आता है। समता का विलोम है तामस । समता जीवन का वरदान है और तामस अभिशाप ।
• समताधारी यश में फूलता नहीं और अपयश में सूखता नहीं ।
समता भाव ध्यान नहीं है वह तो राग द्वेष से रहित एक परम पुरुषार्थ है ।
16 मई 2005 जिनभाषित
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एल - 65, न्यू इन्दिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.)
'सागर बूँद समाय'
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