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ज्ञान एवं चारित्रयुक्त शिक्षा की आवश्यकता
डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन चारित्र का भवन संस्कार के बीज से निर्मित होता
जब लक्ष्य साधुत्व हो तो समाज के कर्णधारों को है। जीवन भर की साधना भी इसके लिए कम होती है अतः | चाहिए कि वे ऐसी शिक्षण व्यवस्था को अपनायें जिसमें जरूरी है कि जो साधु हैं वे अपनी साधना से विचलित न हों | सद्गृहस्थ भी बनें और सच्चे साधु भी। यदि हम अधुनातन
और जो श्रावक हैं वे साधु को सांसारिकता के आकर्षण से | आवश्यकताओं को थोड़ी देर के लिए भूल जायें तो पायेंगे बचायें। प्रलोभन मेंन लुभायें। यदि साधु श्रावकों की सांसारिक | कि मनुष्य की प्राय: तीन मूलभूत आवश्यकतायें मानी जाती स्वार्थपूर्ति के साधन बनेंगे तो उनका पतन निश्चित है। | हैं- 1. रोटी 2. कपड़ा 3. मकान। ये सांसारिक पतनशील (पतित) साधु के लिए दोषी मात्र साधु ही नहीं | आवश्यकतायें हैं जिनकी पूर्ति मनुष्य पुरुषार्थ के माध्यम से होंगे अपितु वे श्रावक भी होंगे जो साधु के पतन में सहायक | करता है। ये चार पुरुषार्थ हैं- 1. धर्म 2. अर्थ 3. काम 4. बनते हैं। श्रावक साधु को साधु ही बने रहने दें। यदि साधु | मोक्ष। धर्म से प्रारम्भ होकर मोक्ष प्राप्ति तक की यह यात्रा जो तपस्वी होगा तो उसे बिना कहे बिनायाचना के सब प्राप्त हो | जीवन भर चलती है, यही पुरुषार्थ की पूर्णता है। मूलभूत जायेगा। सब का मतलब संसार नहीं बल्कि वह जिससे | आवश्यकताओं- रोटी, कपड़ा और मकान की पूर्णता के संसार छूटता है और तप में वृद्धि होती है। विष्णुकुमार मुनि | लिए अर्थ की आवश्यकता प्रायः समझी व कही जाती को विक्रिया ऋद्धि प्राप्त थी किन्तु इसका उन्हें आभास तक है,किन्तु अर्थ के लिए भी ज्ञान की अपरिहार्य आवश्यकता नहीं था। अहंकार या दुरुपप्रयोग तो बहुत दूर की बात है। वे | होती है। अर्थ से प्राप्त रोटी से शरीर में उत्पन्न भूख की पूर्ति मनि धन्य थे जिनके शरीर की स्पर्श-गन्ध से विष तक दर | व कपडा और मकान से शरीर की रक्षा होती है। इस प्रकार हो जाते थे। निष्पृहि साधु अपने तप-त्याग से जितनी प्रभावना | शरीर की रक्षा को महत्व मिला था, दिया जाता है। कारण कर सकता है उतनी किसी अन्यप्रकार से नहीं। दिगम्बर | स्पष्ट है किमुनि गुरु का लक्षण बताते 'छत्रचूड़ामणि' में श्री वादीभसिंह "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।" सूरी कहते हैं कि
अर्थात् शरीर निश्चय से प्रथम धर्म का साधन है। रत्नत्रय विशुद्धः सन्, पायस्नेही परार्थकृत। | साध्य की प्राप्ति के लिए साधन की रक्षा अनिवार्य भी है परिपालित धर्मो हि, भवाब्धेस्तारको गुरुः ॥ 2/30 | और अपरिहार्य भी। लेकिन यह भी ध्यान रहे कि "न
अर्थात् जो रत्नत्रय से पवित्र है, पात्रों के प्रति प्रेम | वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः" अर्थात् धन के साथ-साथ आत्मा करने वाला है, परोपकारी है, धर्म का परिपालन करने वाला | की भी रक्षा चाहते हों उन्हें अपना जीवन धर्ममय चारित्रमय है, संसार-समुद्र को पार करने वाला है, वही गुरु है। बनाना ही चाहिए। अपने जीवन को धर्ममय बनाने के लिए
साधु तो सन्तोषी होते हैं। कहा भी है- "सन्तोष | ज्ञान की आवश्यकता सभी आवश्यकताओं में सर्वोपरि है। मूलं हि सुखं दुःखमूलं विपर्ययः" अर्थात् सुख का मूल | ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित करते हुए पंडित प्रवर दौलतराम आधार सन्तोष है, इसके विपरीत तृष्णा, लालसा दुःखों का | जी "छहढाला" मैं कहते हैं किमूल है। जबकि "सन्तोषादनुत्तमः सुख लाभः" (योग 2/ ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारन। 42) अर्थात् सन्तोष से जो सुख होता है वह सबसे उत्तम सुख इह परमामृत जन्म-जरा-मृतु रोग निवारन ।। 4/3 || है। साधु को जिस तप से सुख और सन्तोष मिलता है उस
अर्थात ज्ञान के समान इस संसार में सुख का दूसरा पर प्रश्न चिन्ह लगना ही साधु गरिमा को कम करना है, जो | कारण नहीं है। वह इस जन्म में अमृत और जन्म,जरा किसी भी साधु को इष्ट नहीं होना चाहिए। 'महाभारत' में | (बुढापा), मृत्यु और रोगों का निवारण करने वाला है। नीतिकार यक्ष ने युधिष्ठर से पूछा- “तप: किं लक्षणम् " तो युधिष्ठिर | कहते हैं किने उत्तर दिया- 'तपः स्वधर्म वर्तित्वम्" अर्थात् अपने कर्त्तव्य | येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। के पालन में जो भी विघ्न बाधाएं आएं उन्हें सहते हुए | ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्य रुपेण मृगाश्चरन्ति ।। निरन्तर अपने स्वधर्म का पालन करना ही तप है। इसी से
(भर्तृहरि : नीतिशतक 12) मोक्षरुप सुख की प्राप्ति होगी।
- मई 2005 जिनभाषित 15
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