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हुआ अपरिमित हर्ष से 'अत्र अवतर अवतर' कहता हुआ पुष्पवर्षा करके अवतरण महोत्सव मनावे |
2. दूसरी क्रिया स्थापन की है। इस समय पूजक यह समझकर कि तीर्थंकर माता के गर्भ में आ रहे हैं, प्रतिमा में गर्भ - प्रवेशोन्मुख तीर्थंकरके रूप को देखता हुआ बड़े आनन्द के साथ "अत्र तिष्ठ तिष्ठ" कहता हुआ पुष्पवर्षा करके गर्भ-स्थिति महोत्सव मनावे |
3. तीसरी क्रिया सन्निधिकरण की है। जिस प्रकार तीर्थंकर का जन्म हो जानेपर अभिषेक के लिए सुमेरु पर्वतपर ले जाने के उद्देश्य से इन्द्र उनको अपनी गोद में लेता है, उसी प्रकार इस क्रिया के करते समय पूजक यह समझकर कि "तीर्थंकर का जन्म हो गया है" प्रतिमा में जन्म के समय के तीर्थंकर की कल्पना करता हुआ उनके जन्मअभिषेक की क्रिया सम्पन्न करने के लिये " मम सन्निहितो भव-भव" कहकर पुष्पवर्षा करते हुए प्रतिमा को यथास्थान से उठाकर अपनी गोदी में लेता हुआ बड़े उत्साह के साथ सन्निधिकरण - महोत्सव मनावे।
इसके अनन्तर वह कल्पित-सुमेरु पर्वत की कल्पित पांडुक शिलापर इस प्रतिमा को स्थापित करे ।
4. चौथी क्रिया अभिषेक की है। इस समय पूजक घंटा, वादित्र आदि के शब्दों के बीच मंगलपाठ का उच्चारण करता हुआ बड़े समारोह के साथ प्रतिमा का अभिषेक करके तीर्थंकर के जन्माभिषेक की क्रिया सम्पन्न करे ।
ये चारों क्रियायें तीर्थंकर के असाधारण महत्व को प्रकट करने वाली हैं। इनके द्वारा पूजक के हृदय में तीर्थंकर के असाधारण व्यक्तित्व की गहरी छाप लगती है। इसलिये इनका समावेश द्रव्यपूजा में किया जाता है। इसके बाद तीर्थंकर के गृहस्थ जीवन में भी कुछ उपयोगी घटनायें घटती हैं, परन्तु असाधारण व नियमित न होने के कारण उनका समावेश द्रव्यपूजा में नहीं किया गया है।
5. यह क्रिया अष्टद्रव्य के अर्पण करने की है। पूजक का कर्त्तव्य है कि वह इस समय प्रतिमा में तीर्थंकर की निर्ग्रथ-मुनि-अवस्था की कल्पना करके आहारदान की प्रक्रिया सम्पन्न करने के लिए सामग्री चढ़ावे । तीर्थंकर की निर्ग्रन्थ-मुनि-अवस्था में इसी तरह की पूजा उपादेय कही जा सकती है। इसलिए बाह्य सामग्री चढ़ाने का उपदेश शास्त्रों में पाया जाता है। इस क्रिया के द्वारा पूजक के हृदय में पात्रों के लिए दान देने की भावना पैदा हो, इस उद्देश्य से
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मई 2005 जिनभाषित
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ही इस क्रिया का विधान किया गया है।
किसी समय हम लोगों में यह रिवाज चालू था कि जो भोजन अपने घर पर अपने निमित्त से तैयार किया जाता था उसीका एक भाग भगवान की पूजा के काम में लाया जाता था, जिसका उद्देश्य यह था कि हम लोगों का आहारपान शुद्ध रहे । परन्तु जबसे हम लोगों में आहारपान की शुद्धता के विषय में शिथिलाचारी हुई, तभी से वह प्रथा बन्द कर दी गई है। और मेरा जहाँ तक ख्याल है कि कहीं-कहीं अब भी यह प्रथा जारी है।
6. छठी क्रिया जयमाला की है। जयमाला का अर्थ गुणानुवाद होता है । गुणानुवाद तभी किया जा सकता है, जबकि विकास हो जावे । केवलज्ञान के हो जाने पर तीर्थंकर
गुणों का परिपूर्ण विकास हो जाता है। इसलिए जयमाला पढ़ते समय पूजक प्रतिमा में केवलज्ञानी-सयोगी - अर्हन्त तीर्थंकर की कल्पना करके उनके गुणों का अनुवाद करे। यही उस समय की पूजा है। तीर्थंकर के सर्वज्ञपने, वीतरागपने और हितोपदेशीपने का भाव पूजक को होवे, यह उद्देश्य इस क्रिया के विधान का समझना चाहिये। यही कारण है कि जयमाला के बाद शान्तिपाठ के द्वारा जगत के कल्याण की प्रार्थना करते हुएं पूजक को तदनन्तर प्रार्थना-पाठ के द्वारा आत्मकल्याण की भावना भगवान की प्रतिमा के सामने प्रगट करने का विधान पूजाविधि में पाया जाता है । जयमाला पढ़ने के बाद अर्घ्य चढ़ाने की जो प्रवृत्ति अपने यहाँ पायी जाती है, वह ठीक नहीं, क्योंकि अरहन्त-अवस्था में तीर्थंकर कृतकृत्य, सर्वाभिलाषाओं से रहित होने के कारण हमारे द्वारा अर्पित किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करते हैं । अतएव केवल गुणानुवाद करके ही पूजक को यह क्रिया समाप्त करना चाहिए। इसके बाद वह जगत के कल्याण की भावना से शान्तिपाठ व इसके बाद आत्मकल्याण की भावना से स्तुतिपाठ पढ़े। ये दोनों बातें तीर्थंकर की अरहंत अवस्था में ही सम्भव हो सकती हैं, कारण कि तीर्थंकर का हितोपदेशीपना इसी अवस्था में पाया जाता है।
7. सातवीं क्रिया विसर्जन की है। इस समय पूजक यह समझकर कि भगवान की मुक्ति हो रही है, अपरिमित हर्ष से पुष्पवर्षा करता हुआ विसर्जन की क्रिया को समाप्त करे । जयमाला पढ़ते हुए भी यदि पुष्पवर्षा की जाय तो अनुचित नहीं, क्योंकि उससे हर्षातिरेक का बोध होता है, परन्तु अर्घ चढ़ाना तो पूर्वोक्त रीति अनुचित ही है। यह हमारी द्रव्यपूजा की विधि का अभिप्राय है और
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