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संहनन पाये जाते हैं। अर्थात् अर्द्धनाराच, कीलक और असंप्राप्ता- । (अ) 'सुह-सुद्ध परिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्ती सपाटिका। इनके जाने के बारे में भी कर्म प्रकृति ग्रंथ गाथा 83.85 | दो' (जयधवल 1/6) में ऐसा लिखा है- अर्द्धनाराचवाला 16वें स्वर्ग तक, कीलकवाला अर्थ- शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्म का क्षय नहीं मानने बारहवें स्वर्ग तक तथा असंप्राप्ता. वाला 8वें स्वर्ग तक जा सकता | पर कर्मों का क्षय कभी होगा ही नहीं। है। नरक जाने के बारे में, असंप्राप्ता, वाला तीसरे नरक तक, (ब) मोहनीय कर्म का क्षय धर्मध्यान का फल है। क्योंकि कीलकवाले पांचवें नरकतक, अर्द्धनाराचवाले तथा वज्रनाराचवाले | सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान के चरम समय में उसका क्षय देखा जाता छठे नरक तक जा सकते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि पंचमकाल का | है। इससे सिद्ध होता है कि धर्म ध्यान 10वें गुणस्थान तक होता है। जीव 16वें स्वर्ग तथा 6वें नरक तक जा सकता है। वर्तमान में हमारे | और धर्मध्यान शुभोपयोग का अपर नाम है। (धवल 13/81) आपके ऐसा प्रतीत होता है कि अन्तिम संहनन हो। अतः हम/आप | आचार्य वीरसेन स्वामी ने शुभोपयोग 10वें गुणस्थान तक आठवें स्वर्ग तथा तीसरे नरक तक ही जा सकते हैं।
माना है। तथा मोह का अभाव होने पर 11-12वें गुणस्थान में जिज्ञासा - वैयावृत्य तप मुनियों के लिए है या श्रावकों के | शुद्धोपयोग माना है। लिए? वैयावृत्ति क्या प्रतिदिन आवश्यक होती है या जब शरीर की । (स) जिण-पूजा वंदणणमंसणेहिय बहुकम्मपरदेसनिज्जरूवलदशानुसार चित्त अस्थिर हो। मुनिराज अस्नानवृत्ति होते हैं। स्नान प्रायः | भ्भवादो। (धवल पुस्तक 10/289) जल से होता है। जलस्नान त्यागी को क्या प्रतिदिन तैलमर्दन कराना अर्थ- जिन पूजा, वंदन, एवं नमस्कार से बहुत कर्मों की निर्जरा आगमोचित है?
होती है। समाधान - वैय्यावृत्ति तप मुनियों के अंतरंग तक में तो तप | (द) 'अरहंत णमोकारो संपहिय बंधादो असंखेज्जगुण रूप है। परन्तु श्रावकों के भी षट्करमों में तप के अंतर्गत आता है। | कम्मक्खयकारओति।' (श्रीजय धवल 1/9) रत्नकरण्डकश्रावकाचार श्लोक 112 के अनुसार
अर्थ- अरहत भगवान को नमस्कार करने से तात्कालिक बंध व्यापत्तिव्यपनोद, पदयोः संवाहनं च गुणरागात्।
की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। वैयावृत्यं यावानुपग्रहोन्योपि संयमिनाम्॥
(ई) जिणबिबदसणेण, णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादि अर्थ- सम्यग्दर्शनादि गुणों की प्रीति से देशव्रत और सकलव्रत | कम्मकलावस्य खयदंसणादो॥ धवल 6/427॥ के धारक संयमी जनों की, नाना प्रकार की आपत्ति को दूर करना पैरों अर्थ - जिनबिम्ब के दर्शन से निधत्त निकाचित मिथ्यात्वादि का, हस्तादि अंगों का दावना और इसके सिवाय और भी जितना | कर्म समूह को नष्ट होते हुए देखा जाता है। कुछ उपकार करना है वह वैय्यावृत्य कहा जाता है।
(फ) जह्वाधणसंधाया खणेण पवहणहया विलिज्जति। प्रवचनसार गाथा 254 कीटीका में कहा है 'यह वैय्यावृत्य रूप ज्झाणप्पवणोवह्या तह कम्मधणा विलिज्जति (ध्यान शतक) चर्या रागसहित होने के कारण श्रमणों को गौण होती है और गृहस्थों अर्थ- जैसे मेघपटल पवन से ताड़ित होकर क्षण मात्र में विलीन के क्रमशः परम निर्वाण सुख का कारण होने से मुख्य है। यह वैय्यावृत्य | हो जाता है, वैसे ही धर्मध्यानरूपी पवन से उपहद होकर कर्मरूपी परिस्थिति के अनुसार प्रतिदिन भी आवश्यक होती है। जैसे एक मुनि | बादल भी विलीन हो जाते हैं। महाराज को शौच में एक-डेढ़ घंटा लगता है। उनकी प्रतिदिन | उपर्युक्त सभी प्रमाण श्री धवल महाशास्त्र के है। पंडित वैय्यावृत्य हम श्रावकों को करना आवश्यक है। नियम नहीं बनाया | जवाहरलाल जी भिन्डर वाले लिखते हैं कि 'संसार में श्री धवल जी जा सकता। पात्र की स्थिति पर निर्भर करता है।
से बड़ा कोई ग्रंथ नहीं है। अतः उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि श्री मूलाचार में बहुत स्थानों पर लिखा है कि मुनि को तेल | शुभोपयोग से आस्रव तो होता ही है, निर्जरा भी होती है। मर्दन नहीं कराना चाहिए। (पृ. 7,38 और दूसरे भाग में पृ. | तत्वार्थसूत्र अध्याय 9/45 में आचार्य उमास्वामी लिखते हैं 38,48,77,118) पर पूर्वार्द्ध गाथा 375 की टीका में मुनि को | कि सम्यक्दृष्टि श्रावक...। इसके अनुसार पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक अपने गुरु की तेल मालिश करना, कायिक विनय तप कहा है। जब | के तथा 6वें गुणस्थानवर्ती मुनि के प्रतिसमय असंख्यात गुणी निर्जरा मुनिराज अपने आचार्य की तेल मालिश कर सकते हैं तो हम क्यों होती है। सभी आचार्यों ने एकमत होकर यह माना है, कि पांचवें और नहीं कर सकते। इस सब का तात्पर्य यह है कि साधु को या आचार्य | छठवें गुणस्थान में शुभोपयोग होता है, शुद्धोपयोग नहीं। तब यह को अपनी तेल मालिश नहीं कराना चाहिए। पर श्रावकों को, व्रती की प्रश्न उठाना स्वाभाविक है, कि पाँचवें-छठवें गुणस्थान में होने वाली तथा मुनिराज की तेल मालिश करना आगमसम्मत है। इसे विनय | प्रति समय की असंख्यात गुणी निर्जरा शुभोपयोग से होती है या या वैय्यावृत्य तप कहा है।
शुद्धोपयोग से? उत्तर होगा शुभोपयोग से। क्योंकि वहाँ शुद्धोपयोग जिज्ञासु - श्री कैलाश चन्द्र जी जयपुर
होता ही नहीं। स्वयं पंडित टोडरमलजी मोक्षमार्गप्रकाशक अध्यय 7 जिज्ञासा - क्या शुभोपयोग से शुभास्रव ही होता है या निर्जरा
में लिखते हैं- 'देखो चुतर्थ गुणस्थान वाला शास्त्राभ्यास आत्मध्यान भी होती है?
चिन्तन आदि कार्य करे, तब भी निर्जरा नहीं, बंध घना है। अर पंचम __समाधान- शुभोपयोग से शुभास्रव व निर्जरा दोनों होते हैं,
गुणस्थान वाला विषय सेवन आदि कार्य करे तहाँ भी बाकै गुण श्रेणी और शुद्धोपयोग से मात्र निर्जरा ही होती है, आस्रव और बंध नहीं
निर्जरा हुआ करे, बंध भी थोरा होवे। इससे सिद्ध है कि पंडित होता है। कुछ विद्वान शुभोपयोग को हेय बताते हैं, क्योंकि उससे
टोडरमलजी भी पंचम गुणस्थान में शुभोपयोग से असंख्यात गुणी
निर्जरा मानते हैं। अतः शुभोपयोग से मात्र शुभास्रव की मान्यता शुभास्रव ही होता है, निर्जरा नहीं। इस संबंध में निम्न आगम प्रमाण
आगमबाध्य है। शुभोपयोग से आस्रव तथा निर्जरा दोनों मानने चाहिए। दृष्टव्य है
1205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 , उ.प्र.
-सितम्बर 2001 जिनभाषित 15
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