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प्रतिष्ठाचार्यों के लिये एक विचारणीय
विषय मोक्षकल्याणक
स्व. पं. मिलापचन्द्र कटारिया
आजकल प्रतिष्ठाचार्य भगवान् अरहन्त देव की प्रतिष्ठा में | बताया है और साक्षात् विधान करने का निषेध किया है। ऐसी सूरत मोक्षकल्याण के विधान में अग्निकुमार देव के मुकुट से उत्पन्न अग्नि | में प्रभु के दाह-संस्कार को दृश्यरूप में बताना साक्षात् विधान करना में भगवान् के दाह संस्कार का दृश्य दिखाते हैं। ऐसा करना उनका | होगा और स्पष्ट ही शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करना कहलावेगा। जयसेन शास्त्रसम्मत प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि दाह संस्कार के समय में | | ने मोक्षगमन का साक्षात् विधान नहीं लिखने के साथ ही साथ जब भगवान अरिहन्त ही न रहेंगे तो उनकी प्रतिमा भी अरहन्त प्रतिमा | मोक्षकल्याण के लिये इन्द्रादि देवों का आगमन भी नहीं लिखा है और कैसे मानी जायेगी? दाह संस्कार भगवान् के निर्वाण होने के बाद | न चौबीस तीर्थंकरों की मोक्षतिथियों की पूजा ही लिखी है। जबकि किया जाता है। उस वक्त अरिहन्त अवस्था का लेश भी नहीं रहता वे अन्य कल्याणकों में उन कल्याणकों की तिथियों की पूजा लिखते है। अरिहन्तदेव के अघातिया कर्मों का नाश होता नहीं और दाह संस्कार | रहे हैं। इससे यही फलितार्थ निकलता है कि जयसेन की दृष्टि में उनका अघातिया कर्मों के नाश होने के बाद ही किया जाता है। वर्तमान | अर्हत्प्रतिमा में मोक्षकल्याण की प्रधानता नहीं है। और जबकि में प्रचलित किसी भी प्रतिष्ठाशास्त्र में दाह-संस्कार का दृश्य दिखाने मोक्षकल्याण में देवों के आगमन का ही उल्लेख नहीं है तो का उल्लेख नहीं है। फिर न जाने ये प्रतिष्ठाचार्य मनमानी कैसे कर | अग्निकुमारदेव के मुकुट से अग्नि उत्पन्न करना आदि दृश्य दिखाना रहे हैं? चूँकि भविष्य में प्रतिमा अरिहन्तदेव की मानी जायेगी, अतः | स्पष्ट ही शास्त्र विरुद्ध है। इसके अतिरिक्त अरिहन्त मूर्ति के पादपीठ उनका मोक्ष गमन दृश्यरूप में बताना किसी तरह उचित नहीं है अर्थात् पर जो प्रतिष्ठा की तिथि अंकित की जाती है वह भी ज्ञानकल्याणक केवलज्ञानी भगवान् का धर्मोपदेश-विहार आदि बताने के बाद उनका के दिन की ही अंकित की जाती है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि दृश्यरूप में मोक्ष गमन न बताकर उनके मोक्ष गमन का मात्र स्मरण अर्हत्प्रतिमा में मोक्षकल्याण का साक्षात् विधान नहीं है, स्मरणमात्र कर लेना चाहिये कि इसके बाद भगवान् मोक्ष पधार गये। है। साक्षात् विधान असंगत है (सिद्ध प्रतिमा में पंचम कल्याण प्रदर्शन
इसी आशय को लेकर जयसेन ने स्वरचित प्रतिष्ठा शास्त्र के | फिर भी संगत हो सकता है, अर्हत्प्रतिमा में नहीं)। पद्य नं. 911 के आगे गद्य में ऐसा लिखा है
आशा है वर्तमान में प्रतिष्ठाचार्य इस पर गम्भीरता से विचार 'निर्वाणभक्तिरेव निर्वाण कल्याणारोपणं, करेंगे। उनके विचारार्थ ही हमने यह लेख प्रस्तुत किया है। अगर साक्षात्तु न विधेयं स्मरणीयमेवेति।
अर्हत्प्रतिमा में दाह-संस्कार का विधान करना उन्हें भी अयुक्त नजर इसकी वचनिका
आये तो उनका कर्तव्य है कि आगे के लिये उन्हें ऐसा करना बन्द 'अर पंचकल्याणनि में च्यारिकल्याण तो विधान संयुक्त किया।
करना चाहिये, ताकि गलत परम्परा यहीं समाप्त हो जाये। अर पंचम कल्याण मोक्षकल्याण है सो निर्वाणभक्ति पाठमात्र ही
प्रतिष्ठासम्बन्धी और भी भूलें हमने पहले दिखाई थीं जिनकी चर्चा आरोपण करना। साक्षात् विधान नहीं करना। स्मरणमात्र ही है, ऐसा |
'जैन निबन्ध रत्नावली' पुस्तक में की गई है। उन पर भी ध्यान दिया अनिर्वाच्य समझि लेना।'
जाये ऐसी प्रार्थना है। यहाँ मोक्षकल्याण का विधान निर्वाणभक्ति का पढ़ लेना मात्र
जैन निबन्ध रत्नावली (द्वितीय भाग) से साभार
निखर उठेगा जीवन कुन्दन
ऋषभ समैया 'जलज'
ढीले करें मोह के बंधन सहज शांत हो मन का क्रंदन अपनी अपनी छवि निहारें रख अपने भावों का दर्पन विषय-वासनाओं के विषधर दूषित नहीं कर सके चंदन समता-सुधा-सरस-सुखदायी काँटों सी चुभती है अनबन
देहरी-द्वारे शुभ रांगोली साफ-सजा हो मन का आँगन राग-द्वेष का मैल छुड़ाने पल-पल भेदज्ञान का मंजन चाह-दाह से आह मिली है सुफल हुआ निष्कांछित वंदन संयम आँच खोट विलगाती निखर उठेगा, जीवन कुंदन
सतत घटाए आकुलताएँ निज शुद्धातम का सचिंतन अपने घर में चैन-चहक है बाहर है भटकन ही भटकन
निखार भवन, कटरा बाजार, सागर (म.प्र.)-470002
सितम्बर 2001 जिनभाषित 13
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