Book Title: Jinabhashita 2001 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 34
________________ मैंने उस समय भी नहीं सोचा था जब मैंने इस आपत्तिजनक पाठ की सूचना सर्वप्रथम अर्हत्वचन के सम्पादक डॉ. 'जैन को अनुपम दी थी। उस समय उन्होंने इसे महत्त्व देकर सम्पादकीय में इस समस्या को लिखा । तत्काल ही जैन सोशल ग्रुप, इंदौर ने इसे आड़े हाथों लिया और बड़े- बड़े पैम्पलेट छपवाकर बाँटे और मेरे पास भी भेजे। मैं अजमेर- किशनगढ़ जैन समाज तथा उन महानुभावों को हृदय से धन्यवाद देना चाहता हूँ जिन्होंने इसे गंभीरता से लेकर श्रमपूर्वक इसे हटवा दिया। इन सफलताओं को देखकर मैं एक सन्देश समाज को देना चाहता हूँ कि समस्या चाहे जितनी बड़ी हो उसके समाधान में आप अगर एक कदम भी आगे बढ़ाते हैं तो देरसबेर उसके सार्थक परिणाम भी सामने आते ही हैं। मैंने प्राकृत भाषा नेट जे. आर. एफ. परीक्षा से हटा देने पर एक छोटी सी आवाज उठायी, बात ऊपर तक पहुँची, आचार्य विद्यानन्दजी की कृपा से प्राकृत भाषा पुनः स्थापित हुई। असंभव सा दिखने वाला कार्य संभव हो गया । इसलिये हममें से कोई भी ऐसी खामियाँ कहीं पर भी देखे, उसे सामने लाये। आज जैन समाज जाग्रत है। परिवर्तन भी होता है। इन उदाहरणों से तो कम से कम ऐसा ही लगता है। कुमार अनेकान्त जैन 'जिनभाषित' मासिक पत्रिका का जून 2001 का अंक मिला। बड़ी प्रसन्नता हुई। यह अंक अपने आप में भविष्य निधि बनने का संकेत देता है। युगखष्टा महर्षि की दिगम्बरी दीक्षा का दिवस जैन धर्मावलम्बियों को तीर्थङ्करों का स्मरण कराता है। आचार्य विद्यासागर जी महाराज युगपुरुष हैं। ऐसे महापुरुष जन कल्याण के लिये समय-समय पर प्रादुर्भूत होते हैं और तुलसीदास जी के शब्दों में हम कह सकते हैं 'ऐसो उदार को जगमाँहीं' - जो अपना जीवन जन-कल्याण में लगावें और स्वयं साधना कर तीर्थ बनकर दूसरों को भी भवसागर को पार करने का मार्ग दिखावें । पत्रिका अपने बाह्य और अन्तर कलेवर दोनों में ही सम्पादक एवं प्रकाशक की कलापूर्ण दृष्टि की परिचायक है आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि धर्म के प्रति जागृति 32 सितम्बर 2001 जिनभाषित Jain Education International का यह प्रयास सफल सिद्ध होगा। डॉ. जयकिशन प्रसाद खण्डेलवाल 6/240, बेलनगंज, आगरा-4 In Jinabhashita, the valu able articles are very important and make awarness amongst the people to our religion. D.N. Akki National Awardee Drawing teacher Govt. P.U. College, Gogi-585309, Tq. Shahapur, Dist. Gulbarga (K.S.) 'जिनभाषित' पत्र के तीन अंक उपलब्ध होने के उपरान्त कल चौथा अंक भी पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी के भव्य चित्र सहित प्राप्त हुआ, देखकर तथा पढ़कर प्रसन्नता हुई। सामाजिक पत्र तो कई प्रकाशित होते हैं, किन्तु 'जिनभाषित की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो अन्य पत्रों में सहसा उपलब्ध नहीं होतीं, जैसे इस पत्र में 'उर्दू शायरी में अध्यात्म' बुद्धि चातुर्य की कथाएँ' 'शंका समाधान' आदि ऐसे प्रकरण है जो जन साधारण को सहसा पढ़ने को प्रोत्साहित करते हैं। इनका संग्रह भविष्य के लिये भी वर्तमान की तरह जनसाधारण को ज्ञानवर्धन में सहायक होगा। पत्रिका उत्तरोत्तर समुन्नति और सार्वभौमिक प्रतिष्ठा प्राप्त करे, यह मेरी मंगलकामना है। पं. बच्चूलाल जैन शास्त्री 'कंचन कुटीर' मकान नं. 36, चरारी, लाल बंगला, कानपुर (कैट) आपके द्वारा सम्पादित पत्रिका 'जिनभाषित' मुझे बराबर प्राप्त हो रही है। पत्रिका का आकर्षक सचित्र आवरण पृष्ठ मन को मोहनीय है। इसकी साज सज्जा भी पत्रिका के अनुकूल है। इसके साथ ही इसका निर्दोष, स्वच्छ, सुन्दर मुद्रण पत्रिका के सौंदर्य में वृद्धि कर रहा है। चूंकि पत्रिका के संपादक मंडल में माने हुए विद्वान है, सामग्री स्तरीय एवं पठनीय है। मेरी मान्यता है कि आपके व सम्पादक मंडल के ज्ञान का लाभ इस पत्रिका के माध्यम से पाठकों को उपलब्ध होता रहेगा। आपके द्वारा प्रस्तुत लेखों का चयन भी For Private & Personal Use Only सराहनीय है। आपकी यह पत्रिका प्रगति के पथ पर अग्रसर होती रहे. इसी शुभकामना के साथ, माणिकचंद जैन पाटनी महामंत्री, राष्ट्रीय दिगम्बर जैन महासमिति आपके द्वारा संपादित जिनभाषितयुगसृष्टा महर्षि का टैगम्बरी दीक्षा दिवस संबंधी मासिक पत्रिका का वर्ष 1 का प्रथम अंक प्राप्त हुआ। अंक का गैटप तथा सामग्री संकलन देखकर हृदय प्रफुल्लित हुआ। आचार्य श्री विद्यासागर जी महान् विचारक, आगम पाठी, उत्कृष्ट तपस्वी, सागर से गंभीर और परम शान्त मुद्राधारी संत हैं। मैंने आचार्य श्री के सर्वप्रथम दर्शन किशनगढ़ में दीक्षा पूर्व किये थे। राजकुमार जैसा तेजस्वी चेहरा था। आचार्य ज्ञानसागर जी. पू. पं. चैनसुखदासजी न्याय तीर्थ के सहपाठी थे मुझे भी पं चैनसुखदास जी का प्रमुख शिष्य होने का गौरव प्राप्त है। अनूप चन्द्र न्यायतीर्थ 769, गोदिकों का रास्ता, किशनपोल बाजार, जयपुर-302003 माटी नहीं बनते बनते तुम आचार्य श्री विद्यासागर अरे कंकरो! माटी से मिलन तो हुआ पर माटी में मिले नहीं तुम ! माटी से सुवन तो हुआ पर माटी में घुले नहीं तुम ! इतना ही नहीं चलती चक्की में डालकर तुम्हें पीसने पर भी अपने गुणधर्म भूलते नहीं तुम ! भले ही चूरण बनते रेतिल माटी नहीं बनते तुम ! मूकमाटी से साभार www.jainelibrary.org

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