Book Title: Jinabhashita 2001 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ जिज्ञासा - समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासु - पंडित राजकुमार जी शास्त्री बरायठा | तीन आर्त्तध्यान होते हैं। जिज्ञासा - 'निःशल्यो व्रती' इस सूत्र में व्रती से तात्पर्य और | 4. संयतासंयतेष्वेतच्चतुभेदं प्रजायते। प्रमत्तसंयतानां तु गुणस्थान अपेक्षा खुलासा करें। माया शल्य और माया कषाय में क्या | निदान रहितं त्रिधा॥39।। ज्ञानार्णव 25/39 अन्तर है? माया कषाय तो नौवें गुणस्थान तक होती है। __ अर्थ- यह आर्त्तध्यान संयतासंयतनामा पाँचवें गुणस्थान पर्यन्त समाधान - 'निःशल्यो व्रती' सूत्र में जिन तीन शल्यों का | तो चार भेद रूप रहता है, किन्तु छटे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में निदान वर्णन किया गया है उनकी परिभाषा आगम में इस प्रकार आती है- रहित तीन ही प्रकार का उत्पन्न होता है। (क) माया शल्य- यह जीव बाहर में बगुले जैसे वेश को धारण | जिज्ञासा- शुभोपयोग की भूमिका कब बनती है, तथा वह कर लोक को प्रसन्न करता है, वह मायाशल्य है। किस गुणस्थान तक रहता है? (ख) मिथ्या शल्य- अपना निरंजन शुद्ध परमात्मा ही उपादेय समाधान- शुभोपयोग के गुणस्थानों के संबंध में प्रवचन सार है, ऐसी रुचि रूप सम्यक्त्व से विलक्षण मिथ्या शल्य है। गाथा-9 की टीका में आचार्य जयसेन ने इस प्रकार कहा है- मिथ्यात्व (ग) निदान शल्य- देखे-सुने और अनुभव में आए हुए भोगों सासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः । तदनन्तरमसंयतसम्य में जो निरतर चित्त देता है, वह निदान शल्य है। ग्दृष्टिदेशविरत-प्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः। (बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा-42 की टीका) अर्थ- मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य उपर्युक्त परिभाषाओं को अच्छी प्रकार देखने से प्रतीत होता | से अशुभोपयोग है इसके आगे असंयत सम्यक्दृष्टि, देशविरत व है, कि उपर्युक्त तीनों शल्यों में से किसी भी एक शल्यवाला जीव | प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से शुभोपयोग है। सम्यक्दृष्टि भी नहीं हो सकता, क्योंकि न तो उसके बगुले जैसा वृहद्रव्य संग्रह गाथा-34 की टीका में इस प्रकार कहा हैमायाचार होता है, न उसके सम्यक्त्त्व से विलक्षण सिद्धान्त होता है मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रगुणस्थानेषूपर्युपरिमन्दत्वेनाशुभोपयोगोवर्त्तते, और न उसके भोगों में निरंतर चित्त होता है। अतः तीनों शल्यवाला ततोऽप्यसंयतसम्यक्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक मिथ्यादृष्टि ही होता है, ऐसा मानना चाहिए। यद्यपि किसी भी शास्त्र में, मूल में या टीका में, इस प्रकार का वर्णन मेरे देखने में नहीं आया, अर्थ- मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीनों गुणस्थानों में फिर भी परिभाषाओं से तो यही स्पष्ट होता है। ऊपर-ऊपर मन्दता से अशुभोपयोग रहता है। उसके आगे असंयत माया शल्य अलग है और माया कषाय अलग! जैसे कोई साधु सम्यक्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्तसंयत नामक जो तीन गुणस्थान है, उनमें बहिरंग में तो अपने को साधु दिखाता हो और अंतरंग में किसी अन्य | परंपरा से शुद्धोपयोग का साधक ऊपर-ऊपर तारतम्य से शुभोपयोग उद्देश्य से (मंदिर में चोरी आदि करना, अपने परिवार को रुपये इकट्ठे | प्रवर्तता है। करके भेजना आदि) साधु बना होने के कारण साधु के अयोग्य आचरण इसके अलावा समयसार गाथा 14 की टीका में आचार्य जयसेन छुपकर करता हो, लोग मेरे अंतरंग आचरण को नहीं जान पा रहे हैं, | ने अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भी शुभौपयोग माना है। कहा है- 'सराग ऐसा सोचकर प्रसन्न होता हो उसके माया शल्य होती है, जबकि माया | सम्यक्दृष्टि लक्षणे शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्त संयतापेक्षया वा।' कषाय तो अपने हृदय के विचार को छुपाने की जो चेष्टा है, उसे कहते इस प्रकार चौथे से छठे गुणस्थान अथवा सातवें गुणस्थान तक हैं। वह बाँस की जड़ मेढ़े का सींग, गोमूत्र की रेखा और लेखनीवत्/ शुभोपयोग होता है। यहाँ पर शुभोपयोग की व्याख्या में मिथ्यात्व खुरपा के समान, चार प्रकार की होती है और विभिन्न गुणस्थानों तक का हटना तथा केवल कषाय का रहना अभीष्ट है। लेकिन आगम में पायी जाती है। ये भेद माया कषाय के हैं माया शल्य के नहीं। अन्यत्र जहाँ तीव्र कषाय की अपेक्षा अशुभोपयोग और मंद कषाय जिज्ञासा - क्या छठवें गुणस्थानवर्ती मुनि के निदान आर्तध्यान | की अपेक्षा शुभोपयोग ऐसा कहा गया है वह भी ठीक ही है। इस होता है? अपेक्षा से मंद कषायपरिणाम, मिथ्यादृष्टि के भी संभव होने से उसके समाधान - प्रमत्तसंयतों के निदान को छोड़कर अन्य तीन | भी शुभोपयोग होता है। दोनों कथनों में भिन्न-भिन्न विवक्षा है, अन्य आर्तध्यान हो सकते हैं। प्रमाण इस प्रकार हैं कोई बाधा नहीं है। । प्रमत्तसंयताना तु निदानवय॑मन्यदार्त्तत्रयं। सर्वार्थ सिद्धि। जिज्ञासु - डॉ. राजेन्द्र कुमार वंसल अमलाई अर्थ-प्रमत्तसंयतों के निदान को छोड़कर तीन आर्त्तध्यान होते हैं। | जिज्ञासा - पंचम काल में कोई भव्यात्मा क्या एक भवावतारी 2 निदानं वर्जयित्वा अन्यदार्त्तत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात् कदा | हो सकता है? क्या कोई तीसरे नरक या तीसरे स्वयं से ऊपर जा चित्प्रमत्तसंयतानां भवति। (राजवार्तिक 9/34 टीका) सकता है? अर्थ - प्रमत्तसंयतों के प्रमाद के तीव्र उद्रेक से निदान को समाधान- संयम प्रकाश उत्तरार्द्ध भाग-2 पृष्ठ 657 के छोड़कर बाकी के तीन आर्त्तध्यान कभी-कभी हो सकते हैं। अनुसार, इस पंचमकाल में भरतक्षेत्र से 123 जीव सीधे विदेहक्षेत्र 3. प्रमत्तसंयतानां मुनीनां षष्ठगुणस्थानवर्तिनाम् निदानं बिना जाकर मोक्ष पधारेंगे। इससे सिद्ध है कि ये एक भवावतारी जीव भी त्रिविधमार्त्तध्यानं स्यात्। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा 474 की टीका) | यहाँ होंगे। अर्थ - छठे गुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयत मुनियों के निदान के बिना कर्म प्रकृति ग्रंथ गाथा 88 के अनुसार पंचमकाल में 3 हीन 14 सितम्बर 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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