Book Title: Jinabhashita 2001 07 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 9
________________ आचार्य श्री शान्तिसागर जी की पूजा मुनि श्री योगसागर (वसन्ततिलका छन्द) हे राग-द्वेष मद मोह विषापहारी, अन्वर्थ नाम तव अद्भुत कार्यकारी । आनन्द पंकज विकासक भानुरूप, श्री शान्तिसागर गुरु शिव के स्वरूप ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्य शान्तिसागरजीमुनीन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री आचार्य शान्तिसागरजीमुनीन्द्र अत्र तिष्ठतिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री आचार्य शान्तिसागरजीमुनीन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भववषट्। आचार्य देव भवसागर से तिरा दो, या जन्म मृत्यु अघ को जड़ से मिटा दो। हे वीर काल यम को वश में किया है, आश्चर्य क्या सहज है न विलम्बता है ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । संतप्तमान मम जीवन है सदा से, कोई न शीतल पदार्थ मिला कहीं से । जो आपके चरण-पंकज धूल से मैं, पाया अपूर्व वर शान्ति सुधा सदा मैं | ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा । भोगोपभोग तज के जिनलिंग धारे, वैराग्य दुदंर लिया भव को निवारे शुद्धोपयोग परमोत्तम ध्यान द्वारा, आत्मीय अक्षय निजातम पेय प्यारा ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। काला भुजंग सम काम डसा हुआ है, ऐसा प्रभाव सब मूर्च्छित विश्व ही है। जो सर्व संग तज संयम को वरा है, ब्रह्मात्म में सहज ही रमते सदा हैं। ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः कामवाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। अध्यात्म के रसिक हैं समता जगी है, जो भूख प्यास जिनको न सता रही है। पकवान जो सरस थाल चढ़ा रहा हूँ, मेरी क्षुधा विलय हो निज को निहा ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः सुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सम्यक्त्वदीप यह ज्ञात करा रहा है, तेरी अनादि अविवेक विलीनता है। अज्ञाननाशक गुरो तुमको मिले हैं, ऐसी घड़ी सुलभ ही मिलती नहीं है। ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेच्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। Jain Education International ज्यों धूप गन्धमय पावक में जलाते, त्यों आप कर्म अघ को तप से जलाते । हे अन्तरंग बहिरंग प्रशान्त मूर्ति, हो धर्म में मम सदा समकीत स्फूर्ति ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः अष्टकर्मविनाशनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । संसार में फल अनेक हमें दिखाते, ये राग-द्वेषद्वय संसृति में भ्रमाते । त्रैलोक्य में विदित है फल मोक्ष सच्चा, ओ प्राप्त हो मम गुरो सुखधाम अच्छा ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्य शान्तिसागरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। श्रद्धा समेत तव पूजन जो करेगा, मानो अनन्त भव के अघ को हरेगा। पावित्र्य मंगलमयी वसु द्रव्य लेके, पूजो सभी परिविशुद्ध सुभाव ले के, ॐ ह्रीं श्री आचार्यशान्तिसागरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्थ निर्वपामीति स्वाहा | दोहा महासन्त की साधना, लोकोत्तर विख्यात । जिनके नाम स्मरण से, जीवन बने प्रभात ॥ जयमाला नाना प्रकार तप दुर्द्धर धारते थे, वे धैर्यवन्त उपसर्ग-जयी बने थे। आये अनेक पथ जीवन में प्रसंग, तो भी कभी न डिगती समता अभंग ॥1 ॥ या पुण्य सातिशय कारक सन्त जी में, सौगन्ध पुष्प समकीर्ति यहँ दिशी में। रक्षाकरी श्रमण संघ परम्परा की, निर्ग्रन्थ पंथ जय घोषित है सदा ही ॥ 2 ॥ सौभाग्य है उदय पंचम काल में भी, चर्चा रही सतयुगी बलहीन में भी। थी सिंहवृत्ति मुनिजीवन में सदा ही, शैथिल्य का न लवलेश दिखे कहीं भी ॥3 ॥ निर्द्वन्द्व निःस्पृह विरक्त निजात्मवेत्ता, चारित्र चक्र परमोत्तम कर्म भेत्ता । त्रैरत्न उज्जवल प्रभा मुख पै दिखाती, भक्तात्म के तिमिर को उर की मिटाती ॥ 4 ॥ तेरी कृपा वरदहस्त परोपकारी, जो नाम के स्मरण संकट को निवारी | अर्चा करो स्तवन वन्दन कीर्ति गाओ, जो पादपद्म-द्वय को उर में बिठाओ ॥ ॐ ह्रीं श्री आचार्य शान्तिसागरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये महा निर्वपामीति स्वाहा | दोहा महाविषम कलिकाय में गुरु तो सुरतरु जान जिनके पाद सरोज में, बनते सभी महान । • जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 7 www.jainelibrary.org

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