Book Title: Jinabhashita 2001 07 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ पर्वराज पर्युषण : प्रदूषण मुक्ति का पर्व डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन 'भारती' पर्वराज पर्युषण पर्व आ गया है। जो कुछ आत्मिक प्रदूषण छा गया था उसे दूर करने का प्रमुख माध्यम है पर्युषण पर्व | आत्माराधना, आत्मिक गुणों का अनुभरन, आत्मशक्ति का जागरण और आत्मनिष्ठा पर्युषण पर्व के वे लक्ष्य हैं जिन्हें पाकर मनुष्य कषाय रहित सच्चे सुख का अनुभव लेखक ने पर्युषण पर्व की आराधना के मनोविज्ञान को अन्ततः मरना पड़ेगा? धर्म विचार डॉ. सुरेन्द्र ‘भारती’ प्राध्यापक होने के साथ-साथ मर्मस्पर्शी लेखनी के धनी एवं 'पार्श्वज्योति' मासिक के सम्पादक भी हैं। उनका यह लेख पर्युषणपर्व के विषय में नये ढंग से सोचने के लिये बाध्य करता है। भोगविलास से सृजन नहीं होता, तप त्याग के साथ ही सृजन का रिश्ता है' गाँधी जी के इन शब्दों के द्वारा 4 सहज ही करने लगता है। मानव कर्म कैसे हों ? इस विषय में 'विदुरनीति' सरलतया उद्घाटित किया है। में लिखा है दिवसेनैव तत्कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत्। अष्टमासेन तत्कुर्याद् चेन वर्षाः सुखं वसेत् ।। पूर्वे वयसि तत्कुर्याद् थेन वृद्धः सुखं वसेत्। यावज्जीवेन तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् 113/67-68 ।। अर्थात् मनुष्य को दिन में ऐसे कार्य करना चाहिए कि रात में सुखपूर्वक सो सके (और रात में ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जो सुबह किसी को मुँह न दिखा सके)। वर्ष के आठ मास ऐसा उद्योग करना चाहिए कि वर्षा के चार मास सुखपूर्वक रह सके। आयु के पूर्वार्ध में यानी युवाकाल में ऐसे कार्य करना चाहिए कि वृद्धावस्था सुखपूर्वक व्यतीत कर सके। पूरे जीवनभर ऐसे श्रेष्ठ आचरण करने चाहिए कि मरने के बाद अगले जन्म में भी सुखपूर्वक रह सके। अब ये नीति की बातें पालन के लिये नहीं, अपितु उदाहरण के लिये ही जैसे रह गयी हों? हम जितना अपनी परम्पराओं एवं संस्कृति से कटे हैं उतने ही धर्म से दूर हुए हैं, सुख से दूर हुए हैं। ऐसे में यह पर्युषण पर्व फिर आया है दिशादर्शन के लिये, सत्पथ पर ले चलने के लिए यदि नहीं चले तो हम बचेंगे कैसे? कबीर ने ठीक ही कहा है Jain Education International पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात । देखत ही छिपि जाइये ज्यों तारे परभात।। । किन्तु आज इसकी परवाह किसे है? सब भरपूर जीना चाहते हैं, कैसे भी, किसी भी तरह, चाहे वह किसी भी कीमत पर हो धर्म धारण करने का भाव था, एक दर्शन था जिसे प्रदर्शन का प्रतीक बना दिया गया है। जिन्दगी जीने के नाम पर हम क्रूरतम होते जा रहे हैं। हमारे घरों में मच्छर मारने, कॉकरोच मारने, जूँ मारने, चींटी मारने, छिपकली मारने, चूहा मारने से लेकर आदमी मारने तक की दवाएँ मौजूद है, फिर भी दरवाजे पर स्टीकर चिपके हैं 'अहिंसा परमोधर्मः 'जिओ और जीने दो', 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' जैसा व्यवहार तुम अपने लिए चाहते हो, वैसा दूसरों के साथ भी करो। क्या स्टीकर्स का प्रदर्शन ही हमारे धर्म की इति है या हमारे धार्मिक होने का सर्टिफिकेट, विचारणीय है। 14 जुलाई अगस्त 2001 जिनभाषित पर्युषण पर्व प्रदर्शन का नहीं, दर्शन का प्रसंग है, जिसमें हम विद्युत सजावट के साथ वह भी तो विचार करें कि इसमें कितने सूक्ष्म जीवों को प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा ? हम फूलों का श्रृंगार करें किन्तु यह भी तो विचार करें कि इससे कितनी चीटियों को पूर्वक होता है। अतः बिना विचारे हम कुछ न करें तथा ऐसा भी न करें जिसमें बाह्य प्रदर्शन तो अच्छा हो, किन्तु जिसका अन्त दुःखद हो । गाँधीजी के जीवन का एक प्रसंग है। वे प्रतिदिन सुबह या शाम को दिल्ली में लालकिले के पास टहलने जाते थे। एक दिन उनके साथ चर्चित स्वतंत्रता सेनानी समाजवादी श्री रामनन्दन जी मित्र भी टहलने के लिये गये। गाँधीजी ने उन्हें लालकिला दिखाते हुए पूछा, 'लाल किले के अंदर की क्या चीज उल्लेखनीय है ?' रामनन्दन जी सोचने लगे, कुछ बोलते, इससे पहले ही गाँधीजी ने जवाब दिया कि लालकिले के अंदर बड़े कमरों के बीच जो नालियों गुजरती है, मुगल बादशाहों के राज में इन नालियों से इत्र, गुलाबजल वगैरह बहता था। यह भाग ही मुगल साम्राज्य के पतन का कारण बना।' गाँधीजी ने आगे कहा कि 'भोग विलास से सृजन नहीं होता । तप-त्याग के साथ ही सृजन का रिश्ता है। भोग विलास का रास्ता तो पतन की मंजिल तक पहुँचाने के लिये अभिशप्त है । ' उक्त संस्मरण से हम अच्छी तरह जान सकते हैं कि भोग पतन का मार्ग है और व्यसनमुक्त धर्ममय जीवन उत्थान का मार्ग है। हमें ऐसा मार्ग ही प्रिय होना चाहिए। नीतिकार कहते हैं For Private & Personal Use Only पाप समय निर्बल बनो, धर्म समय बलवान । वैभव समय विनम्र अति दुःख में धीर महान || अर्थात् जब पाप का समय हो तो हमें निर्बल बनना चाहिए ताकि हमसे कोई पाप कार्य न हो जाये। धर्म के समय अर्थात् जब धर्म का प्रसंग उपस्थित हो तो हमें तन, मन, धन से बढ़चढ़कर धार्मिक कार्य करना चाहिए ताकि अधिकाधिक पुण्य का संचय हो सके। वैभव पाकर हमें विनम्र बनना चाहिए ताकि अहंकार से बच सकें। तन, धन, वैभव का अहंकार दुर्गति का पात्र बनाता है जबकि विनम्रता सुगति की वाहक होती है। इसी प्रकार दुःख में हमें अत्यंत धैर्य धारण करना चाहिए। दुःख के समय हमें धैर्यरूप धर्म संबल प्रदान करता है। हम चाहते हैं कि 'हो भला' तो नीतिकार कहते हैं कि 'कर भला' । किन्तु हम चाहने और करने में विरोधाभासी आचरण करते हैं। यह विरोधाभासी आचरण हमें हर जगह विरोध की स्थिति पैदा करता है। अतः इससे बचें। www.jainelibrary.org

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