Book Title: Jinabhashita 2001 07 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 32
________________ इक्कीसवीं सदी में जैन संस्कृति का भविष्य कुमार अनेकान्त जैन ___ अब तक तो यह बात। श्री कमार अनेकान्त जैन का यह लेख महत्त्वपूर्ण है। यह मिशनरी आंदोलन प्रक्रिया के सर्वमान्य हो चुकी है कि जैन तहत विकास करते चले परम्परा उतनी ही प्राचीन है। उन हेतुओं को उद्घाटित करता है जो जैन संस्कृति और समुदाय आए। धन और सेवा के बहाने जितनी कि वैदिक। विश्व की को हाशिये पर डालकर रखने के लिये उत्तरदायी हैं। यदि जैन इन्होंने बहुतों को अपना प्राचीनतम संस्कृतियों में वैदिक | संस्कृति और समाज को विश्वसमाज में सम्माननीय और बनाया। बड़े-बड़े संस्कृति तथा श्रमण संस्कृति का अनुपेक्षणीय स्थान बनाना है तो उन उपायों का अवलम्बन करना विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, नाम आदर से लिया जाता है। | होगा जिनकी ओर लेखक ने ध्यान आकृष्ट किया है। कॉन्वेंट स्कूलों के माध्यम से संख्या में अल्प होने के बावजूद लेखक उदीयमान हैं। उनमें जैन समाज और संस्कृति के अंग्रेजी और क्रिश्चयेनिटी के जैन संस्कृति की कुछ ऐसी चक्र को वांछित दिशा में मोड़नेवाले विचार जनमने की अनन्त पैर इन्होंने बखूबी जमाए। मौलिक शाश्वत विशेषताएँ हैं जो इन्हें भी दिल से सरकारी उसे आज तक चिरजीवित रखे सम्भावनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यद्यपि यह लेख कई पत्र सहयोग इसलिये मिलता रहा हुए है। न जाने कितने धर्म उठते | पत्रिकाओं में छप चुका है, तथापि इसमें व्यक्त विचार प्रत्येक कि इनके माध्यम से विदेशी हैं, नष्ट हो जाते हैं किन्तु शाश्वत पत्रिका के पाठकों तक पहुँचना आवश्यक हैं। इस प्रयोजन से मुद्रा विदेशों से सहज प्राप्त सामर्थ्य वाले कुछ ही होते हैं प्रस्तुत लेख के महत्त्वपूर्ण अंश 'जिनभाषित' में प्रकाशित किये होती है। मुसलमान अपनी जिनके साथ उठने और नष्ट होने जा रहे हैं। कट्टरपंथी आक्रामक छबि के की घटनाएँ नहीं होतीं। वे त्रिकाल चलते, वोट बैंक के चलते स्थायी एवं प्रासंगिक होते हैं। जैन संस्कृति अपनी पृथक् सत्ता बनाये हुए हैं। इस्लाम को ऐसी ही एक संस्कृति है। किन्तु जब-जब तो पायेंगे कि विश्व के मानचित्र पर हमारी | पढ़ने-पढ़ाने के लिये भरपूर सरकारी अनुदान संस्कृति पर आक्रमण हुए, इसे नष्ट करने का भूमिका एक बिन्दु के समान भी नहीं है। अब मिलता है। सिक्ख धर्म अभी कुछ सौ वर्ष हम चर्चा करें जैनेतर धर्मों की जो कि जैनों कुचक्र रचा गया तब-तब ऐसे जैन संतों, पुराना ही है, किन्तु फिर भी साहित्यिक, महापुरुषों, श्रावकों का जन्म हुआ जिन्होंने से काफी अर्वाचीन हैं। हम जानते हैं बौद्ध, सांस्कृतिक दृष्टि से इनकी पहचान है। इनका इसकी गरिमा को कम नहीं होने दिया। आज इसाई, इस्लाम, सिक्ख धर्म विश्व में अपनी दबदबा भी है। विदेशों में सभी स्तरीय ऐसा लगता है कि ऐसे सक्षम नेताओं का एक अलग पहचान बना चुके हैं। बौद्धों की पुस्तकालयों में इनका स्तरीय साहित्य मौजूद अभाव है जो सम्पूर्ण जैन संस्कृति को सही नीति आरम्भ से साफ रही है, उन्हें राजाश्रय है। वैदिकों की पहचान भी पृथक् है। उनकी दिशा दे सकें। आज जैन संस्कृति, धर्म, प्राप्त हुआ है, सरकारी सहयोग प्राप्त हुआ संस्कृति, उनका साहित्य सभी कुछ सरकारी दर्शन पर संकट के बादल गहरा रहे हैं और है और सबसे बड़ी बात उनकी शिक्षा नीति अनुदान से पलते-पुसते हैं। हम पता नहीं कितनी रुढ़ियों, विचारों की आरम्भ से विकसित रही। बात चाहे हम इस संदर्भ में हम जैन संस्कृति, संकीर्णताओं में जकड़े हुए भगवान महावीर नालंदा विश्वविद्यालय की कर लें या फिर साहित्य और जैन समाज की तुलना कर का 2600वाँ जन्मोत्सव मनाने की तैयारी तक्षशिला विश्वविद्यालय की, शिक्षा के क्षेत्र सकते हैं। बिना किसी सरकारी सहायता के, कर रहे हैं। में आरम्भ से ही बौद्ध धर्म प्रसिद्ध रहा है। बिना वोट बैंक के, बिना किसी हिंसात्मक बौद्ध अधिक से अधिक संख्या में बौद्ध धर्म आज का वातावरण दबाव के मात्र गिने चुने विद्वानों, संतो और का अध्ययन-अध्यापन आरम्भ से करते आए छोटे से समाज और उसके अनुदान के द्वारा यदि हम आज के माहौल की बात करें हैं। यहाँ यह जिज्ञासा सहज ही उठती है कि अपनी संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, दर्शन, तो साफ जाहिर है कि 'जिसकी लाठी उसकी जब भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध की कला और पहचान को जीवित रखने के लिए भैंस' का माहौल है। प्रश्न सत्य या झूठ का | आचार्य परम्परा समानान्तर चल रही थी तब थोड़ा बहुत जितना भी हो सके, पुरुषार्थ किया नहीं, प्रमाणिकता या अप्रमाणिकता का नहीं, जैनों ने बौद्धों के समकक्ष नालंदा, तक्षशिला जाता है। क्या यह काफी है? उसमें भी वणिक वक्त की सच्चाई का है। वर्तमान परिदृश्य जैसे विश्वविद्यालय स्थापित क्यों नहीं किये? मानसिकता विद्या के साथ कितना न्याय कर में संप्रदाय/धर्म का अध्याय खोला जाय तो आचार्य अकलंक देव को भी बौद्धों के यहाँ पाती है? यह सभी को पता है। साहित्य, सामाजिक कला के विकास के क्षेत्र मात्र इसलिए पढ़ने जाना पड़ा कि जैनों के में जैन अन्य की अपेक्षा कम ही नजर आता ज्ञान-विज्ञान का कोई केन्द्र नहीं था। शिक्षा के यह उपेक्षा क्यों? है। ऐसा क्यों? इस 'क्यों' की सच्चाई को इस क्रमिक विकास का ही परिणाम है कि भले भारत में ही जन्मे बौद्ध, सिक्ख और समझना आसान नहीं है। हम धार्मिक प्रचार- ही बौद्ध भारत से लुप्तप्राय हो गये, किन्तु बाहर से आये ईसाई, मुसलमान आज संख्या प्रसार और साहित्यिक उत्थान की चर्चा करें | सम्पूर्ण विश्व में फैले हुए हैं। ईसाई धर्म अपनी में कई गुना होने के बाद भी अल्पसंख्यक 30 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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