Book Title: Jinabhashita 2001 07 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 33
________________ घोषित हैं, जिसका सबसे बड़ा लाभ उन्हें यह मिलता है कि उनकी संस्कृति, साहित्य और कला को सुरक्षित रखने की जिम्मेवारी सरकार की भी हो जाती है। वे सरकारी अनुदान से अपने धर्म के प्रचारार्थ शिक्षण केन्द्र खोलते हैं जिनमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। भारत में ही जन्मी, अहिंसा धर्म का पालन करने वाली जैन संस्कृति, जैन समाज आज हिन्दू बहुसंख्यक में रखी जाने के कारण गहरी उपेक्षा का शिकार हो रही है। हमारा अपना पृथक् कोई वजूद ही नहीं है। हम विदेशी नहीं हैं, हम हिंसक नहीं हैं तो क्या यह हमारी कमजोरी है ? इस उपेक्षा का हम सीधा सादा प्रत्यक्ष उदाहरण देखें कि U.G.C. ने Net परीक्षा से बड़ी ही आसानी से जैन विद्या एवं प्राकृत भाषा का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त कर दिया था। बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, इस्लाम, वैदिक इनका विषय हटा कर देखते। तब आग लगने का डर रहता है। कुछ बनाना होगा तब दृष्टि इन पर जाती है। कुछ बिगाड़ना हो तो सीधा निशाना प्राकृत भाषा एवं जैन विधाएँ बनती हैं। हम तो यह विचार करते हैं कि यदि आचार्य विद्यानंदजी न होते तो शायद ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग पुनः प्राकृत भाषा स्वतंत्र रूप से स्थापित करता। हमारे इस दर्द को समझने वाले कितने हैं ? डॉ. मण्डन मिश्रजी के माध्यम से आचार्यप्रवर ने प्राकृत भाषा को पुनः U.G.C. में स्थापित कराके यह जो अभूतपूर्व कार्य किया, विद्यार्थी वर्ग उनके इस उपकार का सदैव ऋणी रहेगा। विकास बिना कट्टरवाद के संभव नहीं हमने जिन विकसित धर्मों की चर्चा की उनकी इस स्थिति का मुख्य कारण खोजें । उसका मुख्य कारण है कट्टरवाद । कट्टरवाद का रूढ अर्थ बहुत बिगड़ गया है। हम इसे नकारात्मक अर्थों में न लें। कट्टरवाद का अर्थ है अपने धर्म, संस्कृति और साहित्य के प्रति श्रद्धापूर्ण गहन आस्था उपदेशों को पालने की अपेक्षा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के यथार्थ को समझना होगा। इन सभी धर्मों की पृष्ठभूमि में यह भी छिपा हुआ है। ये सार्वजनिक उत्थान की बातें जरूर करते हैं ताकि उनकी छबि व्यापक बने, किन्तु ये करते वस्तुतः स्वयं का ही उत्थान हैं। हम समन्वय की मान्यता को लेकर चले थे किन्तु इतने ज्यादा समन्वित Jain Education International हो गये कि हमें हमारी पहचान बनाना मुश्किल हो गया। हमें समन्वय का पक्ष तो लेना है किन्तु इस बात की सावधानी रखनी है कि कहीं हमारा यह समन्वय विलय में परिवर्तित न हो जाये। अल्पसंख्यक के प्रति गलतफहमी पिछले कुछ वर्षों में जैनों को अल्पसंख्यक बनाने की माँग तेजी से उठी। काफी बहस हुई । 'अल्पसंख्यक' शब्द को लेकर जैनों के मध्य भी कुछ वहम हुए। कुछ कहने लगे ऐसा हुआ तो हम पिछड़े माने जायेंगे, कुछ ने कहा यह तो आरक्षण है, कुछ ने कहा हिन्दुओं की शक्ति कमजोर हो जायेगी। फलत: बात आयी गई हो गई। अल्पसंख्यक होने का मतलब मात्र संख्या में कम होने से है। संस्कृति, सभ्यता, साहित्य की रक्षा बिना सरकारी सहयोग के नहीं होती। इससे सरकारी सहयोग की गारंटी रहती है। हमारे अधिकार बढ़ते हैं। हम जैनविद्या और प्राकृत भाषा को कहीं भी लागू करने की मांग कर सकते हैं। जैनों में ऐसे कई सम्प्रदाय है जो मूर्ति और मंदिर नहीं मानते हैं ठीक है किन्तु उन्हीं श्रावकों को जैनेतर मूर्तियाँ और मंदिर बनवाने में करोड़ों रुपया लगाते हुए मैंने देखा है। ऐसे भक्त न तो घर के रह जाते हैं और न घाट के ये मात्र जैन मंदिर और जैन मूर्तियों का दर्शनपूजन नहीं करते। शेष सभी जैनेतर मूर्तियों, फोटो का इनके घरों में भंडार रहता है। सभी जैनेतर रागद्वेषी देवी-देवताओं के मंदिरों में जाकर दर्शन, पूजन, आरती, भजन ये बहुत ही भक्ति भाव से करते हैं। यह सहिष्णुता नहीं है, अज्ञानता और मिथ्यात्व है। ऐसा वे ही करते हैं जिन्हें अपने धर्म संस्कृति के प्रति बहुमान नहीं है या उसका ज्ञान नहीं है, दृढ़ आस्था नहीं है। हमारी स्थिति सभी को यह ज्ञात ही होगा कि वर्ष 1993 में शिकागो में द्वितीय विश्वधर्म संसद का आयोजन हुआ था। हम अपनी स्थिति का अंदाजा इसी आँकड़े से लगा सकते हैं कि उस विश्वधर्म संसद में मुख्य सत्रों जैसे वीडियो फिल्म प्रसारण, विद्वत् परिषद्, बहुसांस्कृतिक परिवेश, संघर्ष और विश्वीकरण, विज्ञान, विश्व का प्रारम्भ और मानव का भविष्य, व्यापार- कार्य स्थल में नैतिकता, इक्कीसवीं For Private & Personal Use Only सदी के प्रचार माध्यम, ललित कला प्रदर्शन, शारीरिक और मानसिक व्यायाम जैसे महत्त्वपूर्ण सत्रों में जैन धर्म का प्रतिनिधित्व और भूमिका शून्य प्रतिशत रही जबकि इन विषयों से जैन साहित्य भरा पड़ा है। भाषण, व्याख्या- संगोष्ठियों, जनसंसद, धर्म और हिंसा, पवित्र ललित कला उत्सव और प्रदर्शनी सत्र में जैनों की भागीदारी 4 प्रतिशत से लेकर 7 प्रतिशत तक ही सिमटी रही। इसकी विस्तृत समीक्षा डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल के अभिनंदन ग्रंथ में डॉ. अम्बर जैन का महत्वपूर्ण आलेख करता है। कितने आशर्य की बात है कि विश्व की सर्वाधिक प्राचीन जैन संस्कृति अपने परिचय को मुहताज हो गयी ? वास्तव में आवश्यकता है कि इसी ओर समय शक्ति और धन लगाया जाए। मौलिकता के बिना पहचान मुश्किल किसी भी धर्म या समाज का उत्कर्ष मात्र एक क्षेत्र से नहीं होता। जब सर्वविध उन्नति होती है तब उत्कर्ष होता है। अध्यात्म, दर्शन, साहित्य, शिक्षा की उन्नति महत्त्वपूर्ण है किन्तु मात्र इनसे चहुंमुखी विकास संभव नहीं हम देखें तो पायेंगे कि हममें मौलिकता का अभाव प्रायः रहा है। संगीत के क्षेत्र में भक्ति रसमय भजन प्रायः फिल्मी धुनों पर आश्रित हैं, लोक प्रचलित पुराने भजनों में अपने इष्टदेवता का नाम जोड़कर हमने काम चलाया है। अभी इसका ज्वलंत उदाहरण भगवान महावीर की 2600वीं जन्म जयन्ती पर इन्डोर स्टेडियम, नई दिल्ली में आयोजित महोत्सव समिति के कार्यक्रम में देखने को मिला। इतने विशाल कार्यक्रम में 'मैने पायल जो छमकाबी फिर भी आया न हरजायी' वाले बेहूदे गीत की धुन पर जैन बालाओं ने धार्मिक नृत्य किया। साफ जाहिर है हमारे पास न कोई धार्मिक शास्त्रीय नृत्यकला है न संगीत कला । यदि हो भी तो हमें पता नहीं क्योंकि उसका प्रचार नहीं है। जब शब्दचेतना और कला की बारीकियाँ समाप्त हो जाती हैं। तो दिमाग में अपसंस्कृति का कीड़ा इसी तरह उपजता है। ऐसी अवस्था में समाज में कला का विकास नहीं हो पाता। कोई खुद की आवाज में नहीं गाता, अपनी नयी धुनें सृजित • जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित 31 www.jainelibrary.org

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