Book Title: Jinabhashita 2001 07 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 30
________________ शोध सम्भावनाओं से भरा जैनसाहित्य आज का युग विज्ञान का युग है। आज हर क्षेत्र में विज्ञान का बोलवाला है। विज्ञान का अर्थ विशेष ज्ञान भी है। क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप में किया गया कोई भी कार्य वैज्ञानिक कहा जा सकता है। जैन साहित्य / संस्कृति / कला / पुरातत्त्व / आगम / न्याय/ दर्शन/ पुराण / योग / गणित / राजनीति / समाजशास्त्र / भूगोल /शिक्षा/अर्थशास्त्र/ कर्मविज्ञान/ मनोविज्ञान/ इतिहास / नीतिशास्त्र / आचारशास्त्र आदि अनेक विषयों पर जैन साहित्य उपलब्ध है, जिसमें अपरिमित शोध सम्भावनाएं हैं। इतना ही नहीं हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, मराठी, कन्नड़, राजस्थानी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओं में जैन साहित्य रचा गया है। यहाँ तक कि उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं में भी पर्याप्त जैन साहित्य लिखा जा चुका है। पिछले दिनों हमें मुजफ्फरनगर जिले के एक ग्राम में लगभग 25 उर्दू भाषा में लिखित जैन पुस्तकें होने की जानकारी मिली उन बन्धु ने पं. डोटरमल द्वारा लिखित 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' तो हमें स्वयं दिखाई। इस प्रकार अनेक भाषाओं में अनेक विषयों पर अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। गुणवत्ता की दृष्टि से भी ये इक्कीस हैं, उन्नीस नहीं पर प्रश्न है कि कितने लोग इन्हें जानते हैं। सामान्य जन की बात तो दूर, साहित्य और संस्कृति से सरोकार रखने वाले अजैन तक जैन साहित्य के संदर्भ में कुछ विशेष नहीं जानते। इसका कारण खोजने का हमने कभी विशेष प्रयत्न नहीं किया। जहाँ तक हम समझ सके है इसका मूल कारण यही है कि हमने जैन धर्म के घटक मंदिरों/धर्मायतनों पर तो विशेष ध्यान दिया साहित्य पिछड़ता ही गया। यही स्थिति कमोवेश आज भी है। आज आवश्यकता है कि श्रीमान् और श्रीमान् दोनों मिलकर एक ऐसी कार्य योजना बनायें जो जैन साहित्य और शोध के विकास 28 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित Jain Education International डॉ. कपूरचन्द्र जी जैन कुन्दकुन्द जैन पी. जी. कालेज खतौली उ.प्र. में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष हैं। ये न केवल कुशल शोधकर्ता और शोधनिर्देशक हैं, अपितु जैनविद्या में हुए शोधकार्यों का लेखा-जोखा भी रखते हैं। इन्होंने 'प्राकृत एवं जैनविद्या शोधसन्दर्भ' नाम का ग्रन्थ भी प्रकाशित किया है जिसमें पी-एच.डी., डी.लिट्. आदि उपाधियों के लिए लिखे गये शोध प्रबन्धों का विवरण है। इससे जहाँ विद्याप्रेमियों को जैनविद्या के क्षेत्र में सम्पन्न हुए शोधकार्यों की झलक मिलती है, वहीं भावी शोधकर्ताओं को शोधविषय निर्धारित करने हेतु मार्गदर्शन भी प्राप्त होता है। प्रस्तुत लेख जैनसाहित्य में निहित प्रचुर शोध सम्भावनाओं के तथ्य को अनावृत करता है। में मील का पत्थर सिद्ध हो। श्रीमान् अपनी श्री (लक्ष्मी) और धीमान् अपनी धी (बुद्धि) के समर्पण से इस कार्य योजना को मूर्तरूप दे सकते है। हमारे दिगम्बर समाज में तो इसकी महती आवश्यकता है। क्योंकि श्वेताम्बरों में तो जैन विश्व भारती लाडनूं, पा.वि. शोध संस्थान, वाराणसी, एल.डी. इंस्टीट्यूट, अहमदाबाद, बी. एल. इंस्टीट्यूट, दिल्ली जैसी कुछ संस्थाएँ हैं जो सर्वतोमावेन इस कार्य के लिए समर्पित है, परन्तु दिगम्बर जैन समाज में एकाध को छोड़कर कोई भी ऐसी सर्वमान्य संस्था नहीं है जिसका नाम इस विषय में लिया जा सके। विदेशों में आंग्ल भाषा में जो कुछ साहित्य है वह अधिकांशतः श्वेताम्बर मान्यता को पुष्ट करने वाला ही है और सम्भवतः उन्हीं के द्वारा / उन्हीं के प्रयत्नों से अनूदित/प्रकाशित / प्रसारित है। बीसवीं शताब्दी में विपुल मात्रा में जैन साहित्य का प्रकाशन हुआ है, विशेषतः पिछले 20 वर्षों में अनेक सुन्दर और गुणात्मक पुस्तकें बाजार में आई हैं, पर शोध प्रबन्धों की दृष्टि से देखें तो कम ही शोधप्रबन्ध प्रकाश में आ सके हैं। जैन साहित्य में शोधकार्य उपाधिनिरपेक्ष और उपाधि - सापेक्ष दोनों रूपों में हुए डॉ. कपूरचन्द्र जैन हैं, परन्तु यहाँ हम उपाधिसापेक्ष शोध की ही चर्चा करेंगे, क्योंकि उपाधि-निरपेक्ष शोध का क्षेत्र विशाल है, उसका आकलन ऐसे लघु निबन्ध में सम्भव भी नहीं । उपाधि - सापेक्ष शोध से तात्पर्य ऐसे शोध कार्य से है, जो किसी उपाधि की प्राप्ति हेतु किया गया हो। विभिन्न विश्वविद्यालय डी.लिट्. पी. एच. डी., विद्या वाचस्पति, विद्यावारिधि, डी. फिल्. आदि शोध उपाधियाँ देते हैं। एम.ए. और एम. फिल. के लघु शोध-प्रबन्ध ( डेजर्टेशन) के लिए भी अपेक्षाकृत छोटे शोध-प्रबन्ध लिखे जाते हैं। ये एक प्रश्न पत्र के रूप में होते हैं। For Private & Personal Use Only प्राकृत, अपभ्रंश और जैन विषयों पर भी अनेक शोध-प्रबंध लिखे जा रहे हैं और पूर्व में भी लिखे जा चुके हैं। एक अनुमान के आधार पर लगभग डेढ़ हजार शोध-प्रबंध प्राकृत, अपभ्रंश और जैन विद्याओं पर लिखे जा चुके हैं। इनमें से लगभग एक हजार शोध प्रबन्धों की प्रामाणिक सूची हमारे पास उपलब्ध है। इसी प्रकार लगभग 200 शोध प्रबन्ध (प्रकाशित और टंकित) हमारे पास उपलब्ध हैं। 1988 में हमने विश्व विद्यालय अनुदान आयोग नई दिल्ली के आर्थिक सहयोग से 'A Survey of Prakrit Jainological Research' प्रोजेक्ट पूर्ण किया था जो रिपोर्ट आयोग को भेजी उसमें 425 शोध प्रबन्धों की जानकारी थी। इस रिपोर्ट का प्रकाशन 1988 में ही 'प्राकृत एवं जैन विद्या शोध संदर्भ' नाम से किया गया था। 1991 में इस पुस्तक का दूसरा संस्करण और 1993 में परिशिष्ट निकला। अब यह संख्या बढ़ते-बढ़ते एक हजार पर पहुँच गई है। 1990 में श्री कैलाश चंद्र जैन, स्मृति न्यास, खतौली ने प्राकृत एवं जैन विद्या www.jainelibrary.org.

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