Book Title: Jinabhashita 2001 07 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ भक्ति, स्वाध्याय एवं क्षमादिभावों का मनोविज्ञान प्रो. रतनचन्द्र जैन भक्ति का मनोविज्ञान इस प्रकार तीव्रकषायोदयरूप संक्लेशपरिणाम के निमित्तों को इन्द्रियसंयम द्वारा इंद्रियों के भोगव्यसनरूप निमित्त को दूर कर टालने के लिए भक्ति एक शक्तिशाली उपाय है। देने पर भी इन्द्रियविषयों के दर्शन, चिन्तन, स्मरण आदि के निमित्त | स्वाध्याय का मनोविज्ञान से तीव्ररागादि की उत्पत्ति सम्भव स्वाध्याय भी इसका एक है। अतः इन निमित्तों को टालने उत्तम साधन है। इसके द्वारा मन के लिए पञ्चपरमेष्ठी के भजनपूआत्मा के मन्दकषाय-परिणाम को विशुद्धता कहते तत्त्वों के गूढ़ चिन्तन में खो जाता जन, गुणकीर्तन, चरितश्रवण आदि हैं। इससे अशुभ-कर्मों का संवर और निर्जरा तथा शुभकर्मों है। फलस्वरूप वस्तुस्वभाव के शुभ निमित्तों का अवलम्बन का आस्रव-बन्ध होता है। विशुद्धता के विकास में संयम, चिन्तन-मनन से जो स्वपरतत्त्व, अत्यन्त आवश्यक होता है। तप, अपरिग्रह, भक्ति, स्वाध्याय तथा क्षमादिभाव हिताहित एवं हेयोपादेय का विवक मंगलमय आत्माओं के मंगलमय मनोवैज्ञानिक भूमिका निभाते हैं। पूर्व आलेख में प्रथम होता है उसके बल से चारित्रमोह गुणों के चिन्तन-स्मरण के निमित्ति तीन तत्त्वों की मनोवैज्ञानिक भूमिका पर प्रकाश डाला का तीव्रोदय नहीं हो पाता। चित्त से तीव्र कषायोदय के निमित्त टल गया था। प्रस्तुत आलेख अन्तिम तीन साधनों के खाली न रहने से उसमें विषयजाते हैं और सत्ता में स्थित वासनाओं का भी प्रवेश नहीं होता। शुभाशुभ कर्मों की स्थिति और मनोविज्ञान का अनावरण करता है। भक्त कवि तुलसीदास जी ने यह अशुभ कर्मों का अनुभाग हीन हो तथ्य इस सूक्ति में अत्यन्त जाता है, जिससे आगे भी मन्दकषाय का ही उदय होता है। पंडित हृदयस्पर्शी शब्दों में प्रस्तुत किया है - टोडरमल जी लिखते हैं मन पंछी तब लगि उडै विषयवासना माँहि। "भक्ति करने से कषाय मन्द होती है। अरहंतादि के आकार ज्ञान बाज की झपट में जब लगि आया नाँहि।। का अवलोकन करना, स्वरूप का विचार करना, वचन सुनना, पंडित टोडरमल जी का कथन है- "तत्त्वनिर्णय करते हुए निकटवर्ती होना या उनके अनुसार प्रवर्तन करना इत्यादि कार्य तत्काल परिणाम विशुद्ध होते हैं, उससे मोह के स्थिति-अनुभाग घटते हैं।" निमित्त बनकर रागादि को हीन करते हैं।" (मो.मा.प्र. पृष्ठ 7) तत्त्वचिन्तनजन्य आनन्दानुभूति के निमित्त से असातावेदनीय जैसे इन्द्रियविषय एवं असत्पुरुषों का संसर्ग तीव्र कषाय के का भी उदय नहीं हो पाता। यदि उसका उदयकाल आ जाता है, तो उदय का निमित्त बनता है, वैसे ही पञ्चपरमेष्ठीरूप प्रशस्तविषयों के सातावेदनीय में संक्रमित होकर सातारूप फल ही देता है। दर्शनादि मन्दकषायरूप विशुद्ध परिणामों के निमित्त बनते हैं। आचार्य ___ इस तरह स्वाध्याय भी तीव्रकषायोदय का निरोधकर विशुद्ध नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने बतलाया है कि जिनदेव, जिनमन्दिर, परिमामों के विकास का शक्तिशाली माध्यम है, कदाचित् भक्ति से जिनागम, जिनागम के धारक, सम्यक् तप और सम्यक् तप के धारक, भी अधिक। ये छह आयतन सम्यक्त्व प्रकृति के उदय के निमित्ति हैं और इनसे क्षमा-समता-अहिंसादि भावों का मनोविज्ञान विपरीत अर्थात् कुदेवादि छह आयतन मिथ्यात्व प्रकृति के उदय के निमित्त हैं। (गोम्मटसार कर्मकाण्ड/गाथा 74) भक्ति की उपयोगिता आत्मा के अपने क्षमा, समता, धैर्य, विवेक, अहिंसा बतलाते हए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं (अनुकम्पा) आदि भाव भी तीव्रकषायोदय के निमित्तों को निष्प्रभावी "भक्तिरूप प्रशस्तराग का अवलम्बन पुण्यबन्ध का स्थूल | बनाने के अमोघ साधन हैं। लक्ष्य रखनेवाले भक्तिप्रधान अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि) करते हैं। कभी 'चारित्रसार' में कहा गया है - "क्रोधोत्पत्तिनिमित्तानां कभी अनुचित विषयों में रागवृत्ति रोकने के लिए अथवा तीव्रकषायोदय | सन्निधानेऽपि कालुष्याभावः क्षमा" अर्थात् क्रोध उत्पन्न करने वाले का निरोध करने हेत शदोपयोग से च्यत जानी भी करते हैं।"। निमित्तों के होने पर भी कालुष्य (क्षोभ) का अभाव होना क्षमा है। भक्तिभाव से भरे मन में अशभभावों के लिए अवकाश कहाँ | आचार्य शुभचन्द्र का कथन है - से मिल सकता है? इस तथ्य का निरूपण कवि रहीम ने बहुत ही प्रत्यनीके समुत्पन्ने . यद्धैर्यं तद्धि शस्यते। सुन्दर शब्दों में किया है - स्यात्सर्वोपि जनः स्वस्थः सत्यशौचक्षमास्पदः।। प्रीतम छबि नयनन बसै, पर छबि कहाँ समाय। - स्वस्थचित्तवाले तो प्रायः सभी सत्य, शौच, क्षमादि से युक्त भरी सराय रहीम लखि, आप पथिक फिर जाय।। होते हैं, किन्तु शत्रु द्वारा उपसर्ग किये जाने पर धैर्य रखना ही वास्तविक - जिन आँखों में अपने आराध्य की छबि बसी होती है, उनमें | धैर्य है। किसी दूसरे की छबि कैसे समा सकती है? सराय भरी देखकर पथिक | ये कथन इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि जिन निमित्तों अपने आप लौट जाता है। से क्रोधादि जनक कर्मों का उदय होता है, वे यदि उपस्थित हों,तो 16 जुलाई-अगस्त 2001 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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