Book Title: Jina Shasan ke Kuch Vicharniya Prasang
Author(s): Padamchand Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ जिन-कान के कुछ विचारणीय प्रसंग आवश्यक सूत्र में कथन आना है कि बाईम तीयंकर संयम का उपवेश देते हैं 'वाबीम नित्ययरा सामाध्य मजम उवहसंति ।' यही कथन आचार्य हरिभद्रनियुक्ति मे (गाथा १२४६ ) मिलता है। दीक्षा के प्रमग में सभी जीव इम मामायिक चारित्र को धारण करते रहे है और सामायिक सावद्य योग के परियाग मे होता है - 'मामाध्य नाम, मावज्जजोगपरिवज्जणं । ' - इस प्रकार सभी जीव पांचों पापों का त्याग करते हैं या अब्रह्ममिश्रितपरिग्रह रूप बार पापो का ? यह भी एक प्रश्न खडा रहता है । अभिधान राजेन्द्र कोप मे एक उद्धरण है कि'मावद्य कर्ममुक्तम्य, दुर्ष्यानरहितस्य च । ममभावां मुहूनं तत् व्रत सामायिकाह्वयम् ॥ - पृ० १०३ (भाग मातवां) धमी मे दुर्ष्यान का स्पष्टीकरण करते हुए कोषकार ने लिखा है कि'दुर्ष्यान - आनंद्ररूप तेन रहिनस्य प्राणिनः । इममें प्रश्न होना है कि ध्यान तो ५ है - हिमानंदी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी, अब्रह्मानंदी और परिग्रहानदी । क्या माधु (दीक्षा के ममय) चार दुर्ष्यानों को छोड़ता है या उसकी दृष्टि मे पाचां ही दुर्ध्यान होते है ? 'चातुर्याम' के हिमाब में तो दुर्ष्यान भी बार ही होगे- जैसा कि कही कथन नही है । श्री तत्वार्थ राजवातिक मे प्रथम अध्याय के मानवं सूत्र की व्याख्या मे आया "चतुर्याम भेदात्" पद भी विचारणीय है कि इसका समावेश कब और कैसे हुआ । हो मकता है बाद के विद्वानो ने (चातुर्याम धर्म पार्श्वनाथ का है ऐमी धारणा मे) मूल पद मशोधन की चेष्टा की हो अन्यथा, प्राचीन ताडपत्रीय प्रतिलिपियां मे तो ऐमा मिद्ध नही होता । व्यावर, श्रवणबेलगोला और मूडविडी की ताडपत्रीय प्रतियां मे 'चतुर्यमभेदात्' के स्थान मे 'चतुर्यति भेदात् पाठ है । अब आती है केशी-गोनम सबाद की बात । सो, यह विचारणीय है कि वे केशी पार्श्व परपरा के वे ही केशी है जिन्होंने प्रदेशी राजा को संबोध दिया था या अन्य कोई केशी है ? वे केशी बार ज्ञान के धारक थे और पार्श्व की शिष्य परम्परा के पट्धर आचार्य थे। उन्होंने गौतम से प्रश्न किया हो यह बात जंगी नही । यतः सवाद के ( कथित) समय तक गौतम और केशी दोनों समान ज्ञान धारक ही सिद्ध हो सकते हैं। केशी के ज्ञान के सम्बन्ध मे रायपसेणी मे लिखा है- 'इन्बेए षं पदेशी अहं तब "चउम्बिहेण नाणेण" इमेवारूवं अम्मत्वियं जाव समुप्यलं जानामि । " भगवती सूत्र से भी उक्त कथन की पुष्टि होती हैं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67