Book Title: Jina Shasan ke Kuch Vicharniya Prasang
Author(s): Padamchand Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 54
________________ के कुछ विचारणीय प्रसंग एक प्रवेश (ऊर्ध्वप्रचय) के ज्ञाता होते हैं। दूसरी कोटि मे केवली भगवान को लिया जायना यन: ये एक ओर एकाधिक अनंत प्रदेश ( तिर्यकप्रचय-बहुप्रदेशी द्रव्य) के युगपत् जाना है । आचायों ने इमी को ध्यान में लेकर ऊर्ध्वं प्रचय को 'क्रमांकान्त' और निर्यक् प्रचय को 'अक्रमानेकान्त' नाम दिये हैं TY 'निर्यत्र चय तिर्यक् मामान्यमिनि विस्तारमामान्यमिति 'अक्रमाजंकान्न उनि च भव्यते । ऊर्ध्व प्रचय इत्यूर्ध्व मामान्यमित्यायनमामान्यमिति 'क्रमानेकान्न' इति च भव्यनं । - प्रब० सार (न० वृ) १४१।२००१६ 'बस्तु का गुण ममूह अक्रमाऽनेकान्न है क्योंकि गुणां की वस्तु मे युगपदवृत्ति है और पर्यायां का ममूह कमाउनेकान्न, है क्यों पर्यायों की वस्तु मे क्रम में वृद्धि हैं' - जैनेन्द्र मि० कोष पृ० १०८ स्पष्ट है कि क्रमानेकान्न मे वस्तु का स्वाभाविक पूर्णरूप प्रकट नही होना स्वाभाविक पूर्णरूप ती अक्रमाऽनेकान्त में ही प्रकट होता है और बहुप्रवेमित्व का युगपद्याही ज्ञान केवलज्ञान ही है। अनः केवलज्ञानगम्यप्रदेशसम्बन्धी वही रूप प्रमाण है, जो मिद्ध भगवान का रूप है— किचिणा चरम देहदी मिठा ।' अर्थात्-अमंख्यान प्रदेशी । - आगम में द्रव्य का मूल स्वाभाविक लक्षण उसके गुणों और पर्यायों को बतलाया गया है और ये दोनों ही सदाकामद्रव्य मे विद्यमान हैं । द्रव्य के गुण ध्यापिक नय और पर्यायें पर्यावाधिक नय के विषय है। जब हम कहते है कि 'आत्मा अवन्ड है' तो यह कथन द्रव्यार्थिकनय का विषय होता है और जब कहते है कि 'आत्मा असंख्यात प्रदेशी है' तो यह कथन पर्यायाधिकनय का विषय होना है दोनों ही नय निश्चय में आते है। जिसे हम व्यवहार नय कहते है वह द्रव्य को पर संयोग अवस्थारूप में ग्रहण करता है । चूंकि आत्मा का असंख्यप्रदेशत्व स्वाभाविक है अत: वह इस दृष्टि से व्यवहार का विषय नही - निश्चय काही विषय है । द्रव्याधिक पर्यायामिक दोनो मे एक की मुख्यता मे दूमग गोग हो जाता है- द्रव्यस्वभाव में न्यूनाधिकता नही होती अतः स्वभावतः किमी भी अवस्था में आत्मा अप्रदेशी नही है । वह त्रिकाल असंख्यात प्रदेशी तथा अखण्ड है । आत्मा को सर्वथा असंख्यातप्रदेशी मानने पर अर्थक्रियाकारित्व का अभाव भी नही होना । यनः अर्थक्रियाकारित्व का अभाव वहां होता है जहां द्रव्य के अन्य धर्मों की सर्वथा उपेक्षा कर उसे एक कूटम्प धर्मरूप में ही स्वीकार किया जाता है। यहां तो हमे आत्मा के अन्य सभी धर्म स्वीकृत है केवल प्रदेशत्वधर्म

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