Book Title: Jina Shasan ke Kuch Vicharniya Prasang
Author(s): Padamchand Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 39
________________ २६ बाचार्य कुन्दकुन्द मूल और आचार्य अमनचन्द्र की टोकाओं के अनुसार 'नियत' और 'असंयुक्त' विशेषण इम भाति ठीक बैठ जाते हो..... (१) 'निवत' अर्थात् मभी भाति निश्चित. एकाप. अचल, जो अपने स्थान-बल्प आदि में चल न हो, अन्य स्थान में जिमका सम्बन्ध हीन हो —अपने में ही हो अर्थात् 'अपगता' (दूर्गमना ) अन्ये देशा पम्मान म अपदेशः तं अपदेश-नियतं आत्मानम् । अपवा देणेभ्य (अन्य स्थानेभ्य) अपगत: अपदेश नं नियनं आत्मानम् ।' यह अयं टीका में आग निया विशेषण को विधिवत् बिठा देता है और टीका की प्रामाणिकता भी मिड हो जाती है तथा यह मानने का अवसर भी नहीं आता कि श्री अमनचन्द्राचार्य ने गको टीका छोड़ दी है। (0) दूमरा विणेषण है अमयुक्त । अमयुक्त का भाव होता है. मांग रहित-एकाकीमत्वम्प या म्बत्व में विद्यमान । जोम्ब में होगा उगम सयोग कंमा? अर्थात् मयोग नहीं हो होगा । जो मयोग में नहीं होगा उममे पर कमा? ये 'अमंयुक्त' अर्थ 'मतमज्म' (मन्चमध्य) में पटिन हो जाता है। क्योंकि-मत (मन्व) का अर्थ 'चेनन' भी है और मान्मा बनन ही है. बतान को चतन के मध्य अर्थात् आत्मा की आत्मा के मध्य, जो देखना वह जिनणागन को देखता है। 'पाडयमह महण्णव' कोप में लिया है. मन [मत्व प्राणी, जीव-चेतन । पृ. १०७६ । मस्कृत में मत्व का अर्थ जीव है ही। यदि 'मन' के स्थान पर 'मत्त' माना जाय नब भी 'अपदममनमम" इम मिति में अपदम +अत्त+मजा' खण्ड करकं अत' शब्द में आत्मा अपं कर मकन है। आचार्य कुन्दकुन्द ने म्बय भी 'अन' गन्द आत्मा के लिए प्रयोग किया है । नपाहि-- 'कत्ता नम्मुवओगम्म हाड मो अनभावम्म । ' , , , , '६५॥ 'जाण अना दु अनाण' ॥ -- ममयमार इस प्रकार सम्भावना है कि 'मन जब्द का मून 'मन' या 'मन' हो रहा हो और जो यदा-कदा मकार के ऊपर बिन्दुले बैठा हो या मकार का सकार हो गया हो-जैमा कि प्राय. लिपिकार्ग में हो जाता है । यह बात तो बिल्कुल ठीक है कि-'बाचार्य अमनचन्द्र जी की टीका देव हा 'अपण...' पद का वही कप होना चाहिए जो नियन और अमयुक्त विषणों की पुष्टि करता हो। 'मुत' भब्द भी विचारणीय है। कदाचित् इसका मकन कप 'मरव' होता हो। क्योंकि 'स्वत्व' का अर्थ स्व-पन-स्वल्प-आमा में होता है। मेरी दृष्टि में नमी 'स्वत्व' की प्राकृत 'मुक्त' देखने में नही बाई। बिग्गन विचारें।

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