Book Title: Jina Shasan ke Kuch Vicharniya Prasang
Author(s): Padamchand Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 27
________________ भगवान पाके पंचमहापत चार-याम प्रसिद्ध कर दिए गए। और श्रावक के लिए (उमके गृहस्थ .. परिगृहीता सहिन होने के कारण) इस नियम का विधान जारी रखा गया ताकि वह इसमें सावधान रहता हुआ सयम का (यथाशक्ति) पालन कर सके । इसीलिए दो प्रकार के भेद माने गए-- याम चार और अणुवन पांच । अन्यथा दोनों ही ४-४ या ५-५ होने चाहिए थे। एक प्रश्न यह भी महत्व का है कि_ 'पुरिमा उजुजड्डाओ, वकणहार पच्छिमा । ममिमा उजुपण्णाउ नेण धम्मे दुहा का ॥' आदि की स्थिति यामी पर ही क्यों मानी जाय ' क्यो न अणुवती की भी चार ही माना जाय । क्या उक्त यिनि का प्रभाव मुनियों पर ही परा' या उन दिनो मभी थावक ऋजु-जड थे और मभी मुनि ऋजु-प्रश' मा मो मर्वया अमम्भव है कि ज्ञानावग्णकर्म का अयोपशम मब मुनियों का एक-मा हो और सब थावको का एक-मा? इमर्म तो कर्म के उदय, उपणम और क्षयोपशम आदि का सिद्धान्त हो खटाई में पड जायगा। फिर एक तथ्य यह भी है एक धाग में यामो की मन्या नीन भी मिलती है। यथा'जामा, तिण्णि उदाहया, जमु दम आग्यिा गबुज्नमाणा गट्टिया।' . आवागग ८11 भापा- 'भगवन्न ने महावत के मुख्य नीन भेद कहे-हिमा मत्य और निर्ममन्व । क्योंकि ये नोना ममत्व-भाव में होते है। इसमें आयपुरुप ममन के मावधान होते हैं । टिप्पण-चांगे, मधुन व परिग्रह ये तीनों निर्ममत्व में अजाते है। -वही, अमोलक ऋषिजी बहुन में व्याख्याता जो याम का अर्थ अवस्था करने है उन्हें उक्त प्रमग पर थी शीलाकाचार्य की टीका देखनी चाहिए । नयाहि 'यामा' धन विणेपाः त्रय उदाहना, नवषाप्राणानिपातो मृपाबाद परिग्रहाचेनि ; अदनादानमंधुनयो.परिग्रह एवान्नर्भावान् वय ग्रहणम्।' इम प्रश्न पर भी विचार करना होगा कि ये नीन याम किन नोर्थकग के बनलाए और किनकं ममय में प्रचलित थे। हम ऊपर के प्रमग म स्पष्ट है कि याम सदा पांच ही रहे-पर लोगों के कपन में (न्यूनाधिक की अपेक्षा में) संख्या भेद रहा । सामान्यतः याम एक भी हो सकता है बीर विमेषतः २ से ५ तक हो सकते हैं।

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