Book Title: Jeev Vigyan
Author(s): Pranamyasagar
Publisher: Akalankdev Vidya Sodhalay Samiti

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Page 3
________________ जीव-विज्ञान 'तत्त्वार्थसूत्र' का द्वितीय अध्याय आद्य-निवेदन डॉ०श्रीचन्द्रजन,र वाड़ी रिटायर्ड प्रिंसिपल 'तत्त्वार्थसूत्र' जैन वाङ्मय का सर्वाधिक लोकप्रिय व कीर्तिमान ग्रन्थ है जिसके दस अध्यायों में सात तत्त्वों की सूत्रात्मक रूप में सारगर्भित व मार्मिक सृजनशीलता है। द्वितीय अध्याय में सृष्टि के समग्र जीवों की निरूपणा विविध रूपों में निबद्ध है। जिसकी सुबोधगम्य विस्तारणा मुनिप्रवर 108 श्री प्रणम्यसागर जी के वैज्ञानिक प्रवचनों में निहित है। इन अमृतमयी प्रवचनों का निम्नांकित रूप में वैशिष्ट्य है - 1. प्रत्येक सूत्र की व्याख्या करते समय मुनिवर प्राचीन घिसे-पिटे उदाहरण प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि/अपितु अधुनातम जीवन के ताजे वातावरण में घटित जीवन्त घटनाओं का ही उल्लेख करते है जिससे सूत्रों का अर्थ व भाव श्रोताओं/पाठकों के हृदयों को संस्पर्श कर सके। इन प्रवचनों की सम्प्रेषणीयता सर्वथा निराली है। इसीलिए जैन-अजैन बन्धुओं के लिए ये प्रेरणादायक प्रवचन अत्यावश्यक रूप से श्रोतव्य, ज्ञातव्य व ध्यातव्य हैं। मुनिश्रेष्ठ ने प्रसंगानुकूल विशिष्ट शब्दों का निर्वचन किया है। जैसे - उपयोग, भाव, त्रसजीव, निगोदिया जीव, प्रासुकजल, आहारक शरीर, निर्वृत्ति, कर्मयोग आदि शब्द सर्वथा मौलिक, नूतन व विशद व्याख्यायित हैं जो अन्यत्र प्राप्य नहीं हैं जिनकी जानकारी धर्म-प्रेमी सहृदयों के लिए परमोपयोगी है। संदर्भानुसार शब्दों के अन्तरंग को अपरोक्ष करते हुए कतिपय शब्दों के पारस्परिक अन्तर को मुनिप्रवर द्वारा सोदाहरण समझाया गया है। भावविज्ञान-मनोविज्ञान, द्रव्येन्द्रिय भावेन्द्रिय, आहारक-अनाहारक जीव, स्थावर जीव-माँस, भव्य-अभव्य, तेजस-कार्माण शरीर, समनस्क-अमनस्क जीव इत्यादि। इनकी समुचित जानकारी आधुनिक विज्ञान (Science) और जैन-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में विज्ञापित की गयी है। सन्तशिरोमणि मुनिवर ने विविध सूत्रों के अन्तःस्थल को खोलते हुए तत्सम्बन्धी शंकाएँ करके उनका सम्यक समाधान प्रस्तुत किया है। उनकी एवावती प्रवचन-शैली से विषय में दूरदर्शिता, स्वच्छता व गहनता दर्शनीय है। परिणामस्वरूप श्रोता/पाठक की 3

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