Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 2
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 5
________________ प्रकाशकीय प्रस्तुति (द्वितीय भाग, द्वितीय संस्करण) इस द्वितीय भाग के प्रथम संस्करण का प्रकाशन सन् 1971 में हुआ था। पाँच भागों में नियोजित जैन साहित्य का यह ऐसा गौरव-ग्रन्थ है जो अपनी परिकल्पना मे, कोश-निर्माण कला की वैज्ञानिक पद्धति में, परिभाषित शब्दों की प्रस्तुति और उनके पूर्वापर आयामों के संयोजन में अनेक प्रकार से अद्भुत और अद्वितीय है। इसके रचयिता और प्रायोजक पूज्य क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी जी आज हमारे बीच नही हैं। उनके जीवन को उपलब्धियों का चर्मोत्कर्ष था उनका समाधिमरण जो ईसरी में, तीर्थराज सम्मेदशिखर के पादमूल मे, आचार्य विद्यासागर महाराज से दीक्षा एवं सल्लेखना व्रत ग्रहण करके श्री 105 क्षुल्लक सिद्धान्तसागर के रूप मे, 24 मई 1983 को सम्पन्न हुआ। वह एक ज्योतिपुज का तिरोहण था जिसने आज के युग को आलोकित करने के लिए जैन-जीवन और जिनवाणी की प्रकाश-परम्परा को अक्षत रखा । उनके प्रति बारम्बार नमन हमारी भावनाओं का परिष्करण है। भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक-दम्पती स्व. श्री साह शान्ति प्रसाद जैन और उनकी धर्मपत्नी स्व० श्रीमती रमा जैन ने इस कोश के प्रकाशन को अपना और ज्ञानपीठ का सौभाग्य माना था। कोश का कृतित्व पूज्य वर्णीजी की 20 वर्ष की साधना का सुफल था। मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के प्रधान सम्पादक-द्वय स्व० डॉ. हीरालाल जैन और स्व० डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ने प्रथम संस्करण के अपने प्रधान संपादकीय मे लिखा था : ....'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' प्रस्तुत किया जा रहा है जो ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला संस्कृत सीरीज का 38वां ग्रन्थ है । यह क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी द्वारा संकलित व सम्पादित है । यद्यपि वे क्षीणकाय तथा अस्वस्थ हैं फिर भी वर्णी जी को गम्भीर अध्ययन से अत्यन्त अनुराग है। इस प्रकाशन से ज्ञान के क्षेत्र में ग्रन्थमाला का गौरव और भी बढ़ गया है। ग्रन्थमाला के प्रधान सम्पादक, क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी के अत्यन्त आभारी हैं जो उन्होने अपना यह विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ इस ग्रन्थमाला को प्रकाशनार्थ उपहार में दिया।" उक्त प्रधान सम्पादकीय को और पूज्य क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी के मुख्य 'प्रास्ताविक' को हमने प्रथम भाग के द्वितीय संस्करण मे ज्यों-का-त्यों प्रकाशित किया है। उस प्रास्ताविक में वर्णीजी ने कोश की रचना-प्रक्रिया और विषय-नियोजन तथा विवेचन-पद्धति पर प्रकाश डाला है । ये दोनों लेख महत्त्वपूर्ण और पठनीय हैं। यह कोश पिछले अनेक वर्षों से अनुपलब्ध था । यह नया संस्करण पूज्य वर्णी जी ने स्वयं अक्षरअक्षर देखकर संशोधित और व्यवस्थित किया है। प्रथम भाग के नये संस्करण में वर्णी जी ने अनेक नये शब्द जोड़े हैं, कई स्थानों पर तथ्यात्मक सशोधन, परिवर्तन, परिवर्द्धन किये हैं। 'इतिहास' तथा 'परिशिष्ट' के अन्तर्गत दिगम्बर मूल सघ, दिगम्बर जैनाभासी संघ, पट्टावलि तथा गुर्वावलियां, संवत्, गुणधर आम्नाय, नन्दिसंघादि शीर्षकों से महत्त्वपूर्ण सामग्री जोड़ी है । आगम-सूची में 147 नाम जोड़कर उनकी संख्या 651 कर दी है। इसी प्रकार आचार्य-सूची में 360 नये नाम जोड़े हैं, अतः आचार्य संख्या 618 हो गई है । पूज्य वर्णीजी ने इन चारों भागों का तो संशोधन किया ही है, सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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