Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 140
________________ १४२ जैनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग पर असह्य को भी सहा जाता है और जीना पडता है। बात बहुत पुरानी है । माथुर साहब के एक छोटा भाई था । नाम था शेखर । वह प्रमीला के बडे लटके वीर से एकाध साल हो वडा होगा। जब-तब घर पर आ जाया करता था और वीर के साथ प्रमिला को वह भी भाभी कहता था। उन्हे बहुत ही मानता था । भाभी को भी उससे वडा लाड था । कभी वह माथुर साह्व के साथ आता। तब माथुर तो वाहर मरदानी बैठक मे अपने सहपाठी मित्र से वतियाते रहते और शेखर की भाभी भूले भी बाहर न निकलती। शेसर भीतर अपनी भाभी के पास रहकर और मचल कर जाने क्या क्या उनसे सुनता और लेकर खाता रहता था। हुआ यह कि प्रमीला को वह शेखर ही मिल गया । खासा जवान हो गया था। लेकिन देखते ही पहचानने मे उसे देर न लगी । वह नाया और एक्दम भाभी से लिपट गया । प्रमीला वेहद सकुचित हुई। माथुर माहब के यहा कोई पार्टी थी और स्कूल के कर्मचारी के नाते प्रमीला भी वहा गई थी। उस पार्टी में अनेकानेक गणमान्य लोग थे । प्रमीता एक किनारे बच-वच कर निम रही थी । गेसर के इम अचानक प्रेमाप्रमण पर वह घबरा पाई । बोली, "अरे, शेखर | तू है ? तेपिन जरा देख भाई चुप कर, बोन नहीं।" गेदर भाभी से हट तो गया, लेविन उसके मन में बहुत उत्साह था। कैसे बताता कि इन पन्द्रह-बीस वर्षों के अन्तराल में भाभी बराबर उनके मन मे क्या बनी रही है। किन्तु भाभी की निभक पर अन्त में उनको भी कुछ अटपटा लगा और थोड़ी देर बाद वह चुपचाप वहा से चलकर माशुर माहब के पास पा गया । उन्हे सबर दी कि यहा भाभी आई हुई है। "भाभी, कोन नामी ?" "वही, रतोगी साह्य वाली । श्राप भूल गए ?" मायुर एक्दम आश्चर्य मे प८ गए । पुगनी गटी बात पल में नई

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