Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 174
________________ १७४ जिनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग कर दो और उनसे भी ऊंची चोटी पर चढकर दिखा दो, श्रपने को और दुनिया को, कि तुम कम नही हो । त्याग के सहारे अपने को अधिक मानने की प्रावश्यकता तुम्हारे लिए अगर होती है तो इसीलिए कि मन मे कही तुम्हारे भीतर है कि दूसरे लोग तुम्हारे बडप्पन को अन्यथा जानते नहीं हैं ।" "छोडो मन्नो । " एकाएक शाटिल्य ने कहा । "तुम नही समभोगी | नारायण, शायद तुम भी नहीं समकोगे । इस सगार मे मालूम होता है कोई नही समझेगा । हम क्यों एक दूसरे को समझ नही पाते हैं ? क्यों अपने-अपने पिंजरे में हैं कि चाहे एक दूसरे से बात कर लें और भी तरह-तरह के सम्बन्ध पैदा कर लें, लेकिन पिंजरे के भीतर सिर्फ और सुद ही बने रहे ? नारायण, यह पत्नी है। चालीस वर्षों से हम साथ हैं। हमारे प्यार की कथाए बनी है, मोर सचमुच उसमे उन्नत प्रेम का भोग किसी ने पाया नही होगा। तुम मित्र हो और जानता है, मेरे लिए क्या कुछ तुम भुगत नहीं सकते हो । लेरिन यह ययों है कि में अकेला हू और मनोरमा तक मुझे गलत समझ सकती है ।" नारायण वा अन्तरंग सममंजस मानो बढ़ता गया उसने हमकर वहा, "भागी मनोग्मा जी, भाई साहब को भाप वो गनन समभती हैं? कविता करते हैं तो करने दीजिये । वकालत नहीं करते, सत करने दीजिए । भाई साहब, भाइए प्राप ही छोटिए । कहा से हम लोग गफान से बैठे | लेकिन मैं जाऊगा । जाने में पहने वचन दीजिए कि मुक्तिकम्बन्ता लोग मुक्त ही रखेंगे प्रौर अपनी बातों में उस या आपस में किसी को घेरना वाघना नहीं चाहेंगे | महिए भाई साहब, पहिए भाभी जी ? मुझे पब रजाजत दें ।" नारायण उपम्पति में पता गया तो मानो उसे यह सेव गया जो दोनों तटों को तो भी किसी तरह मिलाव हुए था। पति पान दोनों की निगाहों में गातो परिचय ही और बोपन कितनी भी अभिता नहीं रह गई थी। जैसे

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