Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 177
________________ मुक्ति ? १७७ लिया। पतिने झिटक दिया । वह और निकट ग्रा गई। बोली, "मुनते हो, में भारी बहुत हो गई है । तुम्हें तकलीफ न हो।" "वको मत ।" "देखो, कह रही हू । फिर जो बुरा मानो।" "क्या हुआ है तुम्हे । शर्म करो जरा।" "तो लो।" __ मनोरमा वैठे हुए पति की जानु पर धब्ब से आ बैठी और चिबुक मे हाथ देकर पति के चेहरे को ऊपर उठाया और चूम लिया । पति ने कहना चाहा कि कुछ तो शऊर सीखो। पर उसका समय न था और मालूम हुआ कि अव उसके लिए कही कुछ नहीं रह गया है। न कविता, न सभ्यता, न मुक्तता । स्वय जो मिट गया है तो क्या इसी मे सब मिल गया है। जुलाई '६५

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