Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 145
________________ उलट फेर १४७ नही, देख नही पाया । देखा होता तो यह पाप कैसे होता ? लेकिन तुम अकेली क्यो हो ? वतायो, मैं कुछ कर सकता हू?" "क्या लव अकेले नहीं है ? और इसमे कौन क्या कर सकता है ?" मायुर प्रमीला को देखते रह गए । समझ गए यह महिला सपनो मे पली अव अन्त पुर वासिनी नहीं है । जीवन यथार्थ के अनुभवो ने बाहर से वादाम की तरह इसे कठोर बना दिया है। शायद वह कठोरता ही है जिसने इसे टूटने नही दिया है और उसकी सुन्दरता की कसावट को ज्यो का त्यो रस लिया है। ठीक है, शायद यही ठीक है। विधाता के मर्म को कौन जानता है ? बोले, "प्रमीला | तुम पर्दे के पीछे हर तरह की सुख-सुविधा के वीच रहती थी। मैं मास्टर लगा था और तुम्हारी परिस्थितियो की ओर ऐसे देखता था जैसे धरती पर से कोई स्वर्ग को देवता है । और तुम 'नही, मैं ज्यादे नही कह सकूगा। इतना ही पूछना चाहता हूं कि मुझे माफ कर सकोगी?" "आपने मुझे नौकरी दी है।" "देखो, इस बात को फिर मुह पर न लाना ! छोटा लडका तुम्हारा किस स्कूल में पढता है ? माधव के कालेज मे क्या-क्या विषय है ? देखना, कुछ हो मुझे जस्र मौका देना । सस्प तव भी सनकी था। छोडो तुम्हे कष्ट होता है, उसकी वात छोटो । लेकिन अगर तुमने अव याने किसी तरह का कप्ट पाया, नित्य-निमित्त की आवश्यकता मे सकोच किया और मुझे नहीं कहा तो मुझसे मेरा कसूर उठाया नहीं जायगा । और दोप तुम्हारा होगा। सुनती हो प्रमीला ! हुआ सो हुना, आगे मुझे और उड न देना ।" प्रमीला ने मुस्कराकर कहा, "मापने नियुक्ति के नमय मेरे पचास रुपए कम क्यो किए थे ?" "मैं पागल हो गया था।" "क्यो?" "पागल होने में भी कोई 'क्यो' होता है ? • 'तुम एम ए० नहीं थी

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