Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 149
________________ चक्कर-सदाचार का । १५१ कल्पना भी कभी मुझे न हो सकती थी। वही नाम मिस्टर वर्मा की ओर से चुनौती की तरह चौकाता हुआ, जब मेरे समक्ष आया तो बहुत समझिए कि मैं अपना सतुलन बचाये रख सका और यह नही प्रगट होने दिया कि शर्मा जी के व्यक्तित्व के लिए मेरे मन मे कम आदर है। कहा, "शर्मा जी से वताइए, क्या कहना होगा ? वह तो मुझे वेहद अपना अजीज मानते है । मैं अवश्य उनसे कह सकता हू और स्वीकारता ला सकता हूँ ।" वर्मा ने मुझे देखा । फिर उनके होठो मे मुस्कराहट का वक्र था। पूछा, "तुम्हारा क्या रयाल है ?" "शर्मा जी, "मैने टटोलते हुए कहा- “एच० एम० ने बहुत मुना. सिव सोचा है।" "तो जाकर तुम उनसे मिलो। अभी अध्यक्षता की बात कहने की जरूरत नही । बन रुख देखो और मुझसे कहना । तब एच० एम० खुद मिलना चाहेगे।" एच० एम० खुद मिलना चाहेगे कि अध्यक्ष होने के लिए समक्ष निवेदन कर सके । मुझे लगा, दुनिया गलत है और यही कुछ भूल है । लेकिन कहा कि अच्छी बात है और गाम को ही मैं आपको वापिस आकर मिल सकता है। वर्मा ने कहा कि नही, जल्दी की बात नहीं है और परसो से पहले शायद उनसे मुलाकात भी न हो सकें। मैंने कहा कि अच्छा, और देख लिया कि गम खाए विना दुनिया मे बटना नही हो सकता है, और अफसर सदा अफसर होता है । पर यह सब तो भूमिका हुई । दार्मा जी के यहा जाना हुआ तो वहा ड्राइंग रम तक न था। वाहर एक तस्त पडा था । मालूम हुआ कि यही वैठना होगा । पाच वरत का एक बच्चा पाकर मेरा कार्ड भीतर ले गया और पाच मिनट तक मैं उन छोटे से बरामदे के सूने मे बैठा देखा किया कि पजव तमाशा है । मैं यहा बैग है कि जहा तरीके से बैठना भी नहीं

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