Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 166
________________ १६६ जैनेन्द्र की कहानियां दसवा भाग उसमे बुदबुदा जाते थे किन्तु ध्वनि वाहर नहीं आती थी । कुछ क्षण उपरान्त उसने उस ज्ञान के सुमेरु को शीश नवाकर नमस्कार किया । अनन्तर अव तक अर्थ-निर्मिलित अपने नेत्रो को सर्वथा ही निमिलित करके वह ध्यानमग्न हो रहा । __ व्यवस्थापक ने सकेत किया। दो ओर से दो व्यक्ति बढे । एक निकट ही आ गया और मानो उस व्यक्ति ने इन ध्यानस्थ योगी को कन्वे पर तनिक छुआ । योगी ने वाया हाथ तनिक हिला दिया । जैसे कि योग मे विघ्न डालने मे वर्जित किया हो । प्राख उसने नही सोली और वायें हाथ की झिडकी का वह नकेत ही मानो भरपूर पर्याप्त हुा । दूसरी दिशा से आता हुआ व्यक्ति इन व्यापार पर अपने स्थान पर रुका रह गया और पहले व्यक्ति ने देखा कि कार्य कुछ कठिन है । वह असमजस मे हुमा । उसने करुणभाव से निगाह उठाकर व्यवस्थापकाध्यक्ष से आगे के लिए वे फर्मान मागा । सकेत हुना कि छोडो, छेड़ने की अावश्यकता नहीं है । और वे स्वयं सेवक दोनो फिर जैसे के तैसे अपनी-अपनी दिशा में लौट गए। ___ आखें अव खुल पाई थी । वह देख रहा था । देय रहा था कि लोग पीछे बैठे है और पाच-सात जने सामने भी बैठे हैं । एक कुछ सडे होकार यम मे कह रहे हैं और सब सुन रहे हैं। क्या कहा जा रहा है और चया सुना जा रहा है ? क्यो इन्हे इतना भ्रम है कि बैठे है और मुन रहे हैं । सुनना है तो हमे सुने । या फिर कुछ योग ही करें । और उसको अपनी तरह अनढके क्यो नहीं बैठते ? ऐसे वेकार और पहने और लिपटे क्यो बैठे हैं ? और सामने ज्ञान स्तूप बनाकर क्यो नहीं बैठते कि जैसे में बैठा हूँ। और क्या सब बच्चे हैं ? पागल हैं ? इतना नहीं समझते कि मैं बैठा हूँ। ढग मे तो व्यवहार करें ! ऐं, यह हो क्या रहा है ? शायद सभा हो रही है । ठीक है कि चभा हो रही है । पर क्यों हो रही है सभा ? कुछ और क्यों नहीं हो

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