Book Title: Jainendra Kahani 10
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 170
________________ १७० जनेन्द्र की कहानिया दसवा भाग उनकी ओर देखा, और देखा कि वह किसी और नहीं देस रहे है, सोये से है। उसने कहा-"स्त्री को परयस रहना होता है, क्या यही प्राप कहना चाहती है ? लेकिन भाई माहव तो किसी को वश मे रस नही सकते । उस तरह की कल्पना ही इनमे नही है । और फिर यह तो समाज की प्रथा की बात है । विवाह परवशता नहीं है।" मनोरमा ने देखा कि चर्चा अव तत्व की नहीं रह गई है, एकदम पास भाती जा रही है। उसको कुछ सकोच हुआ। फिर भी उसने कहा-"परवशता की बात में नहीं कहती। विवाह मे भी कोई परवशता नहीं है । पर स्वतन्त्रता स्त्री को पूरी तरह प्रिय ही नहीं होती। आप उठा दीजिये विवाह का बन्धन, या परिवार का दायित्व । सारे समाज कोही चाहे तो आप उजाड दीजिये। परस्पर कर्तव्य का प्रश्न ही मिटा डालिये। फिर भी स्त्री अपने राग-तन्तुओ से अपने लिए बन्धन पैदा किए बिना न रहेगी। इसलिए मुक्ति की मम्भवता उसके लिए नहीं है । मैं तो कहूगी की मगतता ही नहीं है।" गाडिल्य अव भी कुछ नहीं बोले । उनकी दृष्टि दूर थी और मानो वह अन्यमनस्क ये । नारायण ने देखा और पूछा-"और पुरुष ?" "पुस्प !" कहते कहते जैसे मनोरमा की । और बोली-~-"वह रह सकता है स्वप्न मे, या महत्वाकाक्षा मे। रागात्मकता हम स्त्रियो की प्रकृति होती है । पुरुप के लिए वह परिग्रह है । लगता है, उमगे वह घिरता है और उसनी मारी कोशिश छूटने की हो रहती है। इस तरह मुक्ति की धारणा वह पैदा करता है और उमको अपनी साधना बना लेता है। कहते हैं, स्त्री और पुरष परस्पर योग और राहयोग के लिए है। लेकिन यह साबित नच नहीं है, पुरुप को वियोग उससे अधिष प्रावस्यक मालूम हो सकता है ! योग-सहयोग जैसे शब्द उसे पहा रोरतेसे लगते है । अगल में वह वियोग टूटता है। वियोग पद तक को उगने इगलिए इतना ऊचा उठा दिया है कि उसका अर्थ सगार में वियुक्त होना बन गया है, युगत बग किमी परमेश्वर से । जिसमा प्रारम्यक अयं

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