________________
श्रीमान् तीर्थंकर महावीर और वेद.
( लेखकः-श्री बालचंद्राचार्यजी महाराज-खामगांव.) श्रीमन्महावीर तीर्थकर के विषयमें एक व्राजक या ब्राह्मण ठीक अर्थ नहीं करते लेख लिखदेनेकी जैनयुग के तंत्रीजीकी इस बात परसे (अर्थापत्ति न्यायसे) यह सिद्ध प्रेरणा हुई इसलिए यह लेख लिखनेकों होता है वेदोंको महावीर हेय नहीं समझ उद्यत होना पडा. यद्यपि महावीर जीवन तेथे. आजभी महावीरको दृष्टिसे विचार पर अनेक सुयोग्य लेखकों द्वारा लिखे गये किया जायतो वेद हेय नहीं हैं. उपादेयह. लेख्न प्रकट हो चुके हैं. तर्कवितर्क होचुके हैं चाहे निरुक्त या भाषा उनका अर्थ कुछ अब कुछ लिखना रहा होतों केवल चर्वित भी करें किन्तु वेदत्रयी में अनेक बातें ऐसी चर्वण साही कहा जा सकता है. तथापि हम मिलती हैं कि-जो बडे महत्वकी है. उपनिषद् हमारे विचार इस विषय में लिखना (चाहे तो आत्मतत्त्वके विषयमें जैन तत्त्वज्ञान सहकिसी लेखकद्वारा लिखाभी गया होतो) शही प्रकाश डालता है. पुराणोंमें अलंयोग्य समझते है अस्तु.
कारिक वर्णन विशेष रूपसे है सही जो कि ___महावीर की जीवनीपर प्रकाश देनेवाले विचारशीलोंकों असंभवसा प्रतीत होता है अनेक ग्रंथ है. परंतु कल्पसूत्र में प्रायः सभी परंतु लक्ष्यबिन्दु पर लक्ष्य देकर विचार विषय आचुके हैं. महात्माओंका चारित्र किया जाय तो "अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य सदा ऐसा होता है कि जिसमें अनेक - वचनद्वयं परोपकारः पुण्याय पापाय परिअद्भत बातें मिल आती है. जिसकों जो पीडनम् ” यह सिद्धान्त मिल आता है. बात विशेष पसंद होती है उसीपर वह कुछ तब यह जोर के साथ कह सकते हैं किलिखताहै. मेरी दृष्टिसे महावीर किसी विशेष विचारभिन्नता के लिए पृथक्पना अवश्य सम्पदाय के स्थापक नहीं थे. और न कभी हैं किन्तु मूलपर दृष्टिपात किया जायतो ऐसा प्रयत्न किया गया लिखा मिलता है! भिन्न नहीं है. नैतिक सिद्धान्तोंका स्मृतिजीव मात्र पर समान दृष्टि रखनेवाला सम्प्र- योंने बहुतही अच्छा चित्र खींचा हैं. जिनका दाय बनाना चाहे यह बनही नहीं सकता. अनुकरण हेमचन्द्रने " अहंन्नीति " में महावीरने वेदोंको अमान्य नहीं कहा प्रत्युतः और वर्द्धमान मूरिने " आचार दिनकर" गणधर इन्द्रभूतिको प्रथमतः यही कहा कि में किया है. अर्थात् जैनधर्मकी स्याद्वाद"तू वेदोंके अर्थोंको नहीं जानता " अर्थात व्यवस्था भारतीयोंकों सदामान्य रही है और वेद उपादेय है किन्तु अर्थ करनेवाले परि. रहेगी किन्तु एक दुसरे के अच्छे विचार