Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 17
________________ इतना अवश्य है कि आग में निमित्तकारण दो प्रकार के बतलाये गये हैं। एक प्रेरक निमित्तकारण और दूसरा-अप्रेरक निमित्त कारण । इन दोनों निमित्त कारणों की कार्य के प्रति अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां भी आगम में पृथक-पृथक रूप में निश्चित की गई है । (स.पृ. 16) __ (11) तात्पर्य यह कि जैनागम में कार्योत्पत्ति की व्यवस्था इसप्रकार स्वीकृत की गई है कि उपादान (कार्यरूप परिणत होने की स्वाभाविक योग्यता विशिष्ट पदार्थ) तो कार्यरूप परिणत होता है, परन्तु वह तभी कार्यरूप परिणत होता है जब उसे प्रेरक और अप्रेरक (उदासीन) निमित्तों का सहयोग प्राप्त होता है । उसको प्रेरक निमित्तों का सहयोग प्रेरकता के रूप में और अप्रेरक (उदासीन) निमित्तों का सहयोग अप्रेरकता (उदासीनता) के रूप में मिला करता है । इस तरह उपादान कारण प्रेरक निमित्त कारण और अप्रेरक (उदासीन) निमित्त कारण इन तीनों के रूप में कारण सामग्री के मिलने पर ही कार्योत्पत्ति (उपादान की कार्यरूप परिणति) होती है । (स. पृ. 16) . .. - (12) फिर भले ही यह मानता रहे कि उक्त अवसर पर कुम्भकार रूप प्रेरक निमित्त की उपस्थिति रहते हुए भी मिट्टी स्वयं (अपने आप) अर्थात् कुम्भकार की प्रेरणा प्राप्त किये बिना ही अपने में घट की उत्पत्ति कर लेती है और कुम्भकार वहां सर्वथा अकिचित्कर ही बना रहता है। परन्तु उसकी यह मान्यता प्रमाणसम्मत नहीं हैं । (स. पृ. 19) ' (13) उक्त पद्य (35) का अर्थ करते हुये उत्तरपक्ष ने लिखा है कि अन्य द्रव्य अपनी विवक्षित पर्याय के द्वारा इस प्रकार निमित्त है जिस प्रकार धर्मास्तिकाय गति का निमित्त है ।(त. च.. पृ.7) इसमें अपनी विवक्षित पर्याय के द्वारा इस अंश का बोधकं कोई पद पद्य में नहीं है । यह पद्यार्थ से अतिरिक्त है जो अनावश्यक है । (स. पृ. 23) (14) इस तरह 'नव्वेवं इत्यादिक कथन से और उसमें पठितः योग्यताया पद का साक्षात् पद विशेषण होने से निमित्तों की कार्यकारिता ही सिद्ध होती है जिसका निषेध उत्तर पक्ष करना चाहता है क्योंकि योग्यताया पद का साक्षात् तभी मार्थक हो सकता है जब निमित्तों को कार्य के प्रति कार्यकारी माना जाय । मालूम पड़ता है कि इसलिए नव्वेवं इत्यादि कथन का अर्थ उत्तर पक्ष ने अपने वक्तव्य में नहीं किया है । (स पृ. 24) (15) अब यदि उत्तरपक्ष की मान्यतानुसार जीव में होने वाले क्रोध आदि परिणमनों की उत्पत्ति कार्यकाल की योग्यता के अनुसार मानी जावे और क्रोध आदि कर्मों के उदय को वहां पर सर्वथा अकिंचित्कर ही मान लिया जावे तो जिस जीव को वर्तमान समय में क्रोधरूप परिणत हो रही है उसके पूर्व समय में कारणरूप से क्रोधरूप परिणति हो उस जीवकी स्वीकार करना अनिवार्य हो जायेगा । इस तरह से अनादिकाल से अनन्त काल तक उस जीव की सतत क्रोधरूप परिणति होती रहनी चाहीए । अर्थात् उसमें न तो कभी मान, माया या लोभरूप परिणति होगी और न क्रोधरूप परिणति का सर्वथा अभाव होकर उसकी शुद्ध स्वभाव रूप परिणति ही कभी हो सकेगी । और वह स्वाभाविक योग्यता नित्य उपादान शक्ति के रूप में पर्याय शक्ति, जिसे कार्य काल की योग्यता कहा जाता है नहीं हो सकती है, क्योकि कार्यरूप होने के कारण उसे स्वाभाविक नहीं माना जा सकता है । इस विवेचन से प्रकट है कि नित्य उपादान शक्तिरूप. द्रव्यशक्ति के रूप में

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