Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 13
________________ विवक्षा में भूतार्थरूप से ग्रागम क्या कहता है इसकी ओर देखने की उन्हें चिन्ता कम थी । बहुजन समाज हमारे साथ रहे इस ओर उनका ध्यान विशेष था। . (3) यह तीसरा प्रसंग है जब मैं विवक्षित समाज के मतानुसार चलने वाले व लाडमल जी के आमन्त्रण पर जयपुर खांनियां नत्वंचर्चा में सम्मिलित हुआ था। यह चर्चा लिखित रूप में ई सन 1963-64 में सम्पन्न होकर सन् 1967 के फरवरी माह में मुद्रित हुई थी। इस चर्चा में हार-जीत की दृष्टि से यह चर्चा नहीं हुई थी। मात्र दोनों ओर के विद्वानों के लेखों का वह संकलनमात्र था। हमने यह कभी नहीं माना कि हमने जो लिंखा उससे हमारी जीत हुई और दूसरा पम हार गया, ये हलके हैं । यह कोई हार-जीत की शर्त या चर्चा नहीं की गई थी। यह हमारी कोशिश अवश्य रही कि व्यवहारनय के विषय को नहीं छोड़ते हुए हम निश्चयनय के विपय की प्रतिष्ठा करें। उसी प्रकार दूसरे पक्ष का भी यह कर्तव्य था कि वह निश्चयनय के विषय को नहीं छोड़ते हुए व्यवहारनय के विषय की उपयोगिता बतलावे । इसमें कौन कितना सफल हुआ यह बात अलग है । पर हार-जीत के मुद्दे पर यह चर्चा नहीं हुई थी इतना स्पष्ट है । हार-जीत के मुद्दे पर मैं चर्चा करने के लिए तैयार भी नहीं होता। हार-जीत के मुद्दे पर चर्चा तो अन्य धर्म वालों से की जाती है, आपस मे नहीं। .. जो परस्पर की सम्मति से सामान्य नियम बनाये गये थे उनका उस ओर के विद्वानों ने अन्त में अक्षरशः पालन नहीं किया - यह शिकायत हमारी अवश्य बनी रही है । इससे हम यह नहीं समझ पाये कि यह लिखना उस ओर के सब विद्वानों के अभिप्राय हैं या केवल एक विद्वान का प्रभिप्राय है । यह सदा ही खटकने वाली बात है । हमने जो अपनी ओर से लेखों को माध्यम बनाकर लिखा है उसमें नियमों का अवश्य ध्यान रखा है । इस बात पर उस ओर विद्वानों को जो इस समय हैं उन्हें अवश्य विचार करना चाहिये । सार्वजनिक नियम भी इसी लिए बनाये जाते हैं कि उनका पालन उन नियमों से सम्वन्ध रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति करे। एक आक्षेप इस ओर के विद्वानों पर और खासकर हम पर यह किया जाता है कि हम सोनगढ़ के प्रतिनिधि पं. श्री नेमीचन्द जी पाटनी के दुराग्रह के सामने झुककर अपने उक्त प्रस्ताव को रचनात्मक रूप देने के लिए तैयार नहीं हुए । इसका परिणाम यह हुआ कि जो सभी प्रश्न व्याकरणाचार्य जी के अभिप्राय से उभयपक्ष सम्मत होकर दोनों पक्षों को समानरूप से विचारणीय थे वे पूर्वपक्ष के बनकर ही रह गये।" (समीक्षा पृ. 6) __ यह समीक्षा में श्री पं. वंशीधर जी व्याकरणाचार्य का लिखना है। वस्तु स्थिति क्या है इस पर हम सांगोपांग विचार कर लेना चाहते हैं। हम उस बात के खण्डन-मण्डन में नहीं जायेंगे जिसे इसके पहले व्याकरणाचार्य ने लिखा है । वे जिस दिन सामान्य नियम बनाये गये थे उस दिन पाये भी नहीं थे । उसके दूसरे दिन वे चर्चा के समय ही हमें मिले थे। इसलिये यह सवाल ही नहीं उठता कि हम दोनों के मध्य शंकाओं के सम्बन्ध में किसी प्रकार की चर्चा हुई थी। इस चर्चा का आयोजन भी व्याकरणाचार्य की ओर से नहीं किया गया था। चर्चा के लिए आमन्त्रण देने वाले विद्वान् प्र. लाडमल जी और दूसरे ब्रह्मचारी थे। प्रवन्ध भी उन्होंने ही किया था। यदि कभी पहले हम दोनों के मध्य ऐसी चर्चा हुई भी थी तो दूसरे दिन उन्होंने आकर विद्वानों के समक्ष यह प्रस्ताव रखना था

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