Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 11
________________ प्रस्तावना आगम को ध्यान में रखते हुए (जो कि जैनधर्म का प्रारण है, ऐसे अनेकान्त के अनुसार) निश्चय के साथ ग्रसद्भूत व्यवहार की सीमा को सुस्पष्ट करने के अभिप्राय से विद्वानों के मध्य शंका-समाधान सदा से होता आया है। सोनगढ़ में निश्चय की मुख्यता से प्ररूपणा की जाती है, इसलिए कतिपय विद्वान उससे सहमत न होने के कारण ई. सन् 1963-64 में विद्वानों के मध्य नियमानुसार लिखित चर्चा हुई थी । उस समय ये सोनगढ़ सिद्धान्तवादी विद्वान हैं, ये पुराण सिद्धान्तवादी विद्वान हैं - ऐसा कोई भेद उत्पन्न नहीं किया गया था। जो विद्वान निश्चयनय की प्ररूपणा परमार्थ है ऐसा मानकर सोनगढ़ का समर्थन करते थे उनमें हम मुख्य थे । किन्तु जो विद्वान असद्भूत व्यवहार की प्ररूपणा को भी भूतार्थं मानते थे उनमें आदरणीय स्व. पं. मक्खनलालजी मुख्य थे । शेन विद्वान कोई इस और थे और कोई उस ओर थे । इतना अवश्य है कि प्रसद्भूत व्यवहार की प्ररूपणा को भूतार्थ मानने वाले विद्वान अधिक थे । हमारे जीवन में आदरणीय स्व. पं. मक्खन लाल जी के साथ ऐसे दो चार प्रसंग उपस्थित हुए थे जिससे हम उनकी नीति के विषय में पूरी तरह से परिचित होने के कारण इस अवसर पर (खानिया तत्त्व चर्चा के समय) हमें सावधान रहना पड़ा । (1) प्रथम प्रसंग तो तब उपस्थित हुआ था जब षट्खण्डागम- जीवस्थान प्रथम पुस्तक के ६३ वें सूत्र में लिपिकार की असावधानीवश " संजद" पद छूट गया था । श्रतएव मुद्रण के समय हमारी विशेष राय होने के कारण इस सूत्र के टिप्पणी में "संजद" पद और होना चाहिए यह स्पष्ट कर दिया गया था। साथ ही प्रूफ मैं ही देखता था, इसलिये मूल में तो " संजद" पद नहीं जोड़ सके पर उसके अनुवाद में "संजद" पद हमने जोड़ दिया था और वह मुद्रित भी हो गया । प्रथम • संस्करण को उस रूप में आज भी देखा जा सकता है । इस अवसर पर श्रादरणीय स्व. प. मक्खन लालजी शास्त्री और स्व. श्री पं. रामप्रसाद जी शास्त्री कहते रहे कि इस सूत्र में " संजद' पद नहीं होना चाहिये, क्योंकि यह सूत्र द्रव्य मार्गरणा का निरूपण करने वाला है । किन्तु हमारा यह स्पष्ट विचार था कि सर्वत्र ग्रागम में मार्गरणाओं की प्ररूपणा भावनिक्षेप की अपेक्षा से की गई है, इसलिये इस सूत्र में "संजद" पद अवश्य होना चाहिये । लेश्याओं की प्ररूपणा जैसे टीकाओं में ही दिखाई देती है, मूल आगम में नहीं, (चरणानुयोग को छोड़कर करणानुयोग और द्रव्यानुयोग में) वही स्थिति द्रव्य वेदों की भी है । इसका अर्थ यह नहीं कि इन दोनों अनुयोगों की अपेक्षा छठे यादि गुणस्थानों को लेकर मोक्षमार्ग में तीनों द्रव्यवेद ग्राह्य हैं। क्योंकि जैसे पंडक ( द्रव्यवेद की प्रपेक्षा नपुंसक) को छठे आदि गुणस्थानों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय ग्राह्य नहीं मानते, वंसे ही द्रव्य स्त्री के भी पांचवें से प्रागे के गुणस्थान नहीं हो सकते, क्योंकि एक तो उनके अन्तिम तीन संहनन हो होते हैं

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