Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 10
________________ एकं सत् मनुष्य सामाजिक प्राणी है । वह कुटुम्ब बनाकर रहता है। स्त्री, पुत्र, पौत्र और सजातीय बन्धु-बान्धवों एवं सम्बन्धियों से भरा पूरा एक विशाल मानव समाज उसकी जीवनचर्या का अभिन्न एवं अनिवार्य अंग है। मनुष्य कुटुम्ब में आँखें खोलता है और कुटुम्ब के कन्धों पर महायात्रा करता है । कुटुम्ब शब्द का व्यवहार परिवार के अर्थ में किया जाता है। परिवार' का शाब्दिक अर्थ 'घेरा' है और मानव-जीवन अपने रहन-सहन, वेशभूषा, चाल-चलन, आहार-पानी और अन्य सांस्कृतिक व विविध चर्याओं में अपने को परिवार की परम्परागत स्वीकृत प्रथाओं के घेरे में (सीमा, दायरा, परिधि में) जन्म से ही पाता है । धर्म और आहार भेद उसे अपने कुलोत्पन्न अधिकार से ही मिलता है। इन्हीं मान्यताओं के कारण संसार में नाना धर्म, नाना जातियां और नाना प्रकार की बहुलताएं, विविधताएं देखने में आती हैं। समान आचार-विचार वाले बहुत से परिवारों के संगठन से समाज और जाति की रचना होती है। किसी विशिष्ट देश-काल में उत्पन्न हुए विचारकों, क्रान्तिकारियों और धर्म के रहस्यवेत्ताओं के कारण अलग-अलग देशों में, अलग-अलग समयों में और विभिन्न परिस्थितियों में धर्म विविध रूप में प्रचारित होता है और उस धर्मानुबन्ध से भी कुटुम्ब तथा जातियों का संगठन प्रवर्तित होता है । अस्तु एगं सद विश्व में एक सत् है और सत् विश्व का मूलभूत तत्व है। एक शब्द भी थीसिस (अन्वेषण) का विषय बन जाता है। विश्व अनादि अनंत एवं स्वयं सिद्ध सत् है और यह छह द्रव्यों का समुच्चय है । वह तत्व सामान्य से एक प्रकार का है। जीव, अजीव के भेद से दो प्रकार का है । संसारी, मुक्त और अजीव के भेद से तीन प्रकार का है । भव्य, अभव्य, मुक्त और अजीव के भेद से चार प्रकार का है। अथवा संसारी जीव मुक्त जीव अजीव अमूर्तिक और मूर्तिक अजीव के भेद से चार प्रकार १-आचार्य कुन्द कुन्द प्रवचनसार २०६७ 'एकं सत्'-ऋषि (ऋग्वेद, ४६)

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