Book Title: Jain Siddhanta Sutra
Author(s): Kaushal
Publisher: Deshbhushanji Maharaj Trust

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Page 11
________________ का है। पांच अस्तिकाय के भेदों से तत्व पांच प्रकार का है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के भेद से छह प्रकार का है। इसी प्रकार तत्व के भेदों को विस्तार से जानने वालों के लिये इस तत्व के अनन्त भेद हो जाते हैं। जीव का लक्षण चेतना है और उसकी स्थिति अनादि निधन है, वह ज्ञाता-दृष्टा, कर्ता-भोक्ता, देह प्रमाण है। जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच द्रव्य अमूर्तिक हैं । पुद्गल द्रव्य मूर्तिमान है। जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हो, वह पुदगल है। पूरण और गलन रूप स्वभाव होने से 'पुद्गल' यह सार्थक नाम है । परमाणुओं का संयोग पूरण और वियुक्ति गलन कहलाता है । स्कन्ध और परमाणुभेद से पुद्गल दो प्रकारों में व्यवस्थित है । स्निग्ध और रुक्ष अणुसमुदाय स्कन्ध कहलाता है। यह स्कन्धविस्तार द्रव्यणुक स्कन्ध से लेकर अनन्तानन्त परमाणु वाले महास्कन्ध पर्यन्त होता है। छाया, आतप, तम, चांदनी, मेघ (थूम) आदि पुद्गल के पर्याय हैं। समस्त कार्यों से ही अणु की सिद्धि होती है । दो स्पर्शवाला, परिमण्डलवाला' एक वर्ण और एक रस गुण युक्त अणु गुणों की अपेक्षा से नित्य है और पर्यायों की अपेक्षा से अनित्य है । पुद्गल भी छह प्रकार के होते हैं-१-सूक्ष्मसूक्ष्म २-सूक्ष्म ३ - सूक्ष्मस्थूल ४-स्थूलसूक्ष्म ५-स्थल ६- स्थूल स्थल । अदृश्य और अस्पृश्य एक परमाणु 'सूक्ष्मसूक्ष्म' कहलाता है । अनन्त प्रदेशों के योग से सम्पन्न कार्माण स्कन्ध सूक्ष्म' कहलाते हैं । शब्द स्पर्श रस और गन्ध 'सूक्ष्मस्थूल' कहलाते हैं क्योंकि ये अचाक्षुष हैं । परन्तु अन्य इन्द्रियों से ग्राह्य हैं। छाया, ज्योत्स्ना, आतप आदि 'स्थूलसूक्ष्म' हैं क्योंकि चाक्षुष होने पर भी खण्डित नहीं किये जा सकते। जलादिक द्रव्य पदार्थ 'स्थूल' हैं । पृथिवी आदिक 'स्थूल-स्थल' स्कन्ध हैं। इस प्रकार से पदार्थों का याथात्म्य श्रद्धान करने वाला भव्यात्मा उत्कृष्ट आत्मत्व को प्राप्त होता है। पूज्य श्री १०८ आचार्य देशभूषण श्री महाराज ट्रस्ट दिल्ली (पंजीकृत) द्वारा, जैन सिद्धान्त सूत्र का प्रथम संस्करण वीर सम्वत् २५०३ में प्रकाशित है। इस ग्रन्थ में नो अधिकार हैं, जिनमें जैन सिद्धान्त के अवश्य ज्ञातव्य प्रारम्भिक पाठों का समावेश है। वीतराग सर्वज्ञ द्वारा निरूपित होने से निर्धान्त सत्य के रूप में इन अबाधित सिद्धान्तों की मान्यता पूर्व काल से विश्रुत है । 'सूक्षं नियोदितं तत्वम् ।' १- 'अणवः कार्यलिंगाः स्युः द्विस्पर्शाः परिमण्डलाः।' :-आदिपुराण २४॥१४८

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