________________
३०] जैनसिद्धांतसंग्रह।
होत फूल फल ऋतु सबै, प्रथिवी कांच समान । चरणकमलतंल कमल हैं. नमते जय जय वानं ॥१॥ मंद सुगंध चयारि पुनि, गंधोदककी वृष्टि । भूमिविष कंटक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टिं ॥११॥ धर्मचक्र आगे चले, पुनि वसु मंगल सार । अतिशय श्रीअरहंतक, ये चौंतीस प्रकार ॥ १२॥ .
अर्थ-१ भगवान्की अर्द्धमागधी भाषाका होना. समस्त जीवों में परस्पर मित्रताका होना, ३ दिशाओंका निर्मल होना, ४ आकाशका निर्मल होना, ५ सर ऋतुके फल पुष्प धान्यादिकका एक ही समय फलना, ६ एक योजनतककी पृथिीका दर्पणवत् निर्मल होना, ७ चलते समय भगवान्के चरणकमलके तले सुवर्णकमलका होना, ८ आकाशमें जयनय ध्वनिका होना, ९ मंदसुगंधित पवनका चलना. १० सुगंधमय जलकी दृष्टि होना, ११ पवनकुमार देवोंके द्वारा भूमिका कण्टकरहित होना, १२ समस्त नावोंका आनन्दमय होना, १३ भगवान के आगे धर्मचक्रका चलना, १४ छत्र, चमर, चना, घंटादि अष्ट मंगल द्रव्योंका साथ रहना । इसप्रकार सब मिलाकर ११ अतिशय भरहंत भगवान के होते
- अष्टप्रातिहार्य । :: त मोकके निकटमें, सिंहासन छविधार । तीन छत्र सिरपर लौं, मामंडल पिछवार । १॥ दिव्यध्वनि मुख खिरे, पुष्पवृष्टि सुर होय । दार चौसठ चमर सुर, बनि दुंदुमि नोयं ॥१॥