Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 04
Author(s): Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 8
________________ प्रधान-सम्पादकीय प्राचीन कालकी मानबीय प्रवृत्तियोंका विधिवत् वर्णन व विश्लेषण हो इतिहास है । ऐसे इतिहासके लिए आधारभूत सामग्री प्राप्त होती है मानवको निमितियोंके भग्नावशेषों अर्थात् गुफाओं, चैत्यों, स्तूपों, समाधियों, गृहों, मन्दिरादि धर्मायतनों व मूर्तियों जैसे स्थापत्यके भग्नावशेषोंसे, चित्रोंसे व साहित्यिक रचनाओंसे । किन्तु इनसे भी अधिक प्रामाणिक और यथावत् वृत्तान्त उन लेखोंसे मिलता है जो राजाओं व अन्य धनिकोंके दानकी तथा उनके द्वारा निर्माण कराये गये मन्दिरादिको स्मृति-रक्षणार्थ पाषाणखण्डों व ताम्रपटों आदि पर उत्कीर्ण कराये गये पाये जाते है। ऐसे प्राचीनतम लेखोंकी लिपि बहुधा वही ब्राह्मी है जिससे आजकी नागरी लिपि विकसित हुई है, तथापि उसका प्राचीनतम रूप इतना भिन्न था कि उसे पढना बहुत कठिन सिद्ध हुआ । बडे परिश्रमके पश्चात् उस लिपिकी कुंजी हाथ लगी, जिससे लगभग गत अढाई सहस्र वर्षोंके शिलालेख पढे और समझे जा सके। किन्तु चालीस-पचास वर्ष पूर्व सिन्धु घाटीसे ऐसे भी मुद्रालेख प्राप्त हुए है, जिन्हें पढ़ने और समझनेका अभी प्रयास ही चल रहा है, कोई सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। जो प्राचीन शिलालेख पढ़े गये और प्रकाशित हुए वे पुरातत्त्व विभागके बहुमूल्य व दुर्लभ ग्रन्थमालाओं व पत्रिकाओंमे समाविष्ट पाये जाते हैं। इनमें जैन धर्म सम्बन्धी शिलालेखोंका विवरण भी यत्र-तत्र बिखरा पाया जाता है। इन लेखोंका ऐतिहासिक महत्त्व तब प्रकट हुआ जब सन् १८८९ मे मैसूरके पुरातत्त्व विभागको ओरसे श्रवणबेलगोलके १४४ शिलालेखोंका अलगसे संग्रह एक विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना सहित प्रकाशित हुआ। सन् १९२२में इसका संशोधित और परिवर्धित संस्करण प्रकाशमें आया

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