Book Title: Jain_Satyaprakash 1949 05 06 Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad View full book textPage 2
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भवनयुद्धके रचयिता हेमकविका समय (लेखक-श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा) पांच वर्ष हुवे जब मैं अहमदाबादमें श्रीयुत् साराभाई नवाब से मिला था। उनसे अपने प्रेषित चंदन-मलयागिरि चौपई की सचित्र प्रतिके उपयोग करने के सम्बन्ध में पूछने पर उन्होंने आ. आनदशंकर ध्रुव स्मारक ग्रन्थ को दिखाया। उसके पश्चात् हमारी शार्दूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्युट से उक्त ग्रन्थकी प्रति मंगाके देखने पर उसमें प्रकाशित "मदनयुद्ध" नामक हेमकवि को रचनाका भी ध्यान से पढा तो उसके सम्पादक पं. अंबालाल प्रेमचन्द शाहने दो तीन भूलें की हैं ऐसी प्रतीति हुई, उसके संशोधन के लिये प्रस्तुत लेख लिखा जा रहा है। "१ मदनयुद्धका रचनाकाल ग्रन्थ में सतरसे छीडोतरे " दिया गया है, जिससे आपने से १७७६का ग्रहण किया है। पर वास्तवमें वह सं १७०६ हो है। कवि अंचलगच्छीय कल्याणसागरसूरिके शिष्य थे और इस रचनामें उन्होंने मदन को जीता इसीका वर्णन है एवं अंत के 'विराजे शब्दसे भी उनको विद्यमानता में ही ग्रन्थ रचा गया स्पष्ट है । आ. कल्याणसागरसूरिका स्वर्गवास सं १७१८ में हो चुका था अतः १७७६ का ग्रहण सर्वथा असंगत है । वैसे "छीडोतर ६ संख्याका हो सूचक है, ७६ के लिये छीहोतर शब्द प्रयुक्त होता है। इस सम्बन्धमें सबसे प्रबल प्रमाण कविका अन्य ग्रन्थ छंदमालिका' हमें प्राप्त हुआ है वह है। वह भी सं १७०६ में रचा गया है व वहाँ भी " सत्तरसे छीडेातरे" शब्द प्रयुक्त है। उसमें कल्याणसागरसूरि का सूरत के निकटवर्ती हंसपुरमे श्रावकों के चौमासा कराने का भी उल्लेख है । इन सब बातों पर विचार करने से मदनयुद्ध का रचनाकाल सं १७७६ न हो कर १७०६ ही सिद्ध होता है। २ पं. अंबालालजीने हेमकवि के मेदपाट देशाधिपति प्रशस्ति वर्णन को संपादित कर 'बुद्धिप्रकाश' वर्ष ८९ अंक २ में प्रकाशित किया है। उसके रचयिता का मदनयुद्ध के रचयिता हेम से अभिन्न होने को आपने संभावना की है, पर वह सर्वथा असंभव है । उक्त प्रशस्ति वर्णनमें उदयपुरके महाराणा जवानसिंहका वर्णन होनेसे उसकी रचना सं १८८५ के पीछेकी है तब प्रस्तुत हेमकवि १७०६ के हैं । उक्त मेदपाट वर्णन प्रशस्ति को पढने से कवि तपागच्छीय सिद्ध होते है तब प्रस्तुत कविने अंचलगच्छोय हेानेका स्वयं स्पष्ट उल्लेख किया है अत: दोनों कवि भिन्न भिन्न ही हैं। १प्रस्तुत अन्य का विवरण मेरे सम्पादित हिन्दी ग्रन्थ विवरण भाग २ में प्रकाशित है, जो कि हिंदी विद्यापीठ उदयपुर से प्रकाशित है। [ मनुवान सना alon पान] For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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