Book Title: Jain Satyaprakash 1940 06 SrNo 59
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [3७० ] શ્રી જેન સત્ય પ્રકાશ [ વર્ષ ૫ होनी चाहिये ।+ यह कथा रोचक होने की वजह से यहां दी जाती है। श्रीमान श्रद्धेय ओझाजी इस कथा को इस प्रकार अपने डूंगरपुर के इतिहास पृ. ५८-५९ में लिखते है: “ उसके (वीरसिंहदेव ) विषय में ख्यातो में लिखा है कि जहां इस समय डंगरपुर का कस्बा है उसके आसपास के प्रदेश पर डुंगरीया नामक बडे उइंड भील का अधिकार था | वहांसे करीब पांच मील पर थाणा नामक ग्राम में शालाशाह नाम का एक धनाढ्य महाजन रहता था। उसकी रूपवती कन्या को देख कर उस ( भील) ने उसके साथ विवाह करना चाहा। और उसके पिता को अपने पास बुला कर उससे अपनी इच्छा प्रकट की। जब सेठने स्वीकृति नहि दी तब उसको धमका कर कहा कि यदि त मेरा कहना न मानेगा तो में बलात् उसके साथ विवाह कर लूंगा। सेठने भी उस समय 'शठं प्रति शाठ्य' की नीति के अनुसार उसका कथन स्वीकार कर उसके लिये दो माह की अवधि मांग कर कार्तिक शुक्वा १० को विवाह का दिन स्थिर किया, जिससे डुंगरिया प्रसन्न हो गया । शालाशाह ने बडौदे जाकर अपने दुःख का सारा वृत्तान्त वीरसिंहदेव को कह सनाया तो उसने सलाह दी कि भील लोगों को मद्यपान बहुत प्रिय होता है, इस लिये बरात के आने पर उन्हें इतना अधिक मद्य पिलाना कि वे सब गाफिल हो जावे। इतने में हमारा सैन्य वहां पहुंच कर उन सब का काम तमाम कर देगे। इस सलाह के अनुसार भीलों की बरात आते ही सेठने धूमधाम से स्वागत कर बरातियों को खूब मद्य पिलाया। उनके गाफिल हो जाने पर संकेत अनुसार राजाने सेना सहित आ कर उनमेंसे अधिकांश को मार डाला और वचे हुओं को कैद कर उस प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया । डुंगरीयां की दो स्त्रियां धनी और काली उसके साथ सती हुई । उनके स्मारक पक पहाडी पर बने हैं।" शालाशाह तपागच्छीय जैन अनुयायी थे । धार्मिक कार्यों में दिल खोल द्रव्य व्यय करते थे । आपने कई मंदिर एवं मूर्तियां बनवाई थीं। उनमें से कुछ आज भी दृष्टिगोचर होती है। आंतरीगांव (डुंगरपुर ) में भगवान शांतिनाथ का जिनालय था, जो आपकी कीर्ति को सर्वत्र फैला रहा है । यह देवालय आपकी कीर्तियों में से एक कीर्तिस्तम्भ है। इसमें सं० १५२५ का लेख खुदा है। इस मंदिर की प्रशस्ति में आपके वंश का विशद वर्णन है । हालांकि यह प्रशस्ति जगह जगह से घिसी हुइ है, फिर भी वह आपके वंश एवं आपके वंश के इतिहास जानने के लिये काफी है । आशा है, ओसवाल विद्वत समाज इस प्रशस्ति + देखें, ओझाजी लिखित डुंगरपुर राज्य का इतिहास पृ. ५८ For Private And Personal Use Only

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