Book Title: Jain Satyaprakash 1939 01 SrNo 42
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 24
________________ [४५८] श्री सत्य HR [५४ बरदाश्त कर सकता था! उमी क्षण यहां मे उठा और दृढ़ निश्चय किया कि “जहां तक सिंह को मार कर सिद्धाचलजी की यात्रा मुक्त न करूंगा घर न लौटूंगा।' उपर्युक्त प्रतिज्ञा करके विक्रमसी अपने कपड़े धोनेकी मुगदर लेकर घर से निकला। मार्ग में जो स्नेही मिलते वे भी साथ हो गए। और आपस में कहते थे देखो विक्रमसी सिद्धाचलजी की हूंक पर रहे हुए सिंह को मारने जा रहा है। इस पर कोई कोई उसकी मज़ाक उडाते, परन्तु उनको इस बातका कहां ख्याल था कि यह कोई साधारण बात नहीं थी। यहां तो प्राणों की बाजी लगाने का सोदा था, यदि कर देकर जाना होता तो कई कायर धीरता की बाजी मार लेते। विक्रमसो सिद्धाचलजी की तलेटी के नीचे आकर वहां ठहरे हुए यात्रियों के संघ एवं स्नेहियोंको इस प्रकार कहने लगा कि, मैं पहाड़ के ऊपर रहे हुए सिंह को मारने जाता हूँ सिंह को मारकर मैं घंटा बजाऊँगा उसकी ध्वनि सुनकर आप समझ लेवें कि, मैंने सिंह को मारा डाला है। यदि घंटे की ध्वनि सुनाई न दे तो मुझे मरा हुआ समझे। ऐसा कह कर विकमसीने वहां ठहरे हुए जनसमुदाय को भावयुक्त नमस्कार किया और उन को विदा ले पहाड़ पर चढना आरम्भ किया। सब यात्रीगण अनिमेष दृष्टि से उसकी और देख रहे थे। देखते देखते विक्रमसी अदृश्य हो गया। विक्रमसी सिंह मारने की प्रबल भावगा को लेकर एक के बाद पक पहाडी टेकरीयाँ पार कर रहा था। गरमी एवं श्रम के कारण उसके कपड़े पसीनेमें तरबतर हो गये थे। ज्यों ज्यों वह ऊपर चढता था, त्यों स्यों उसकी भावना भी आगे बढकर प्रबल होती जाती थी। इस प्रकार विक्रमसी पहाड़ की चोटी पर चढ गया। समय ठीक मध्यान का था। ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की तेजी का क्या कहना? वनराज शान्ति लेने के लिए एक वृक्ष की शीतल छाया के नीचे निश्चिन्त सो रहा था। विक्रमसी उसके निकट पहुँचा और अपने हृदय में कहने लगा कि, सोते हुए पर वार करना निर्बल तथा कायरों का काम है। अतः उसने सिंहको ललकार दिया । सिंह अपनी शान्ति भंग करनेवाले की ओर लपका, विक्रमसी तो उसका प्रतिकार करने को तैयार ही था। उसने भी शीघ्रता से अपने हाथ में रही हुई मुगदर का उसके मस्तक पर एक ही ऐसा वार किया कि सिंहकी खोपड़ी चूर चूर हो गई। उसके सिर से रक्तधारा बहने लगी, तथापि वह पशुओं का राजा था। वह भी अपना बदला लेने को उद्यत हुआ। वह खड़ा हुआ और विमक्रसी की ओर झपटा। विक्रमसी सिंह को मरा हुआ समझ घण्टे की और दौडा, जहां घंटा वनाने जाता है इतने ही में तो सिंहका एक ही पंजा विक्रमसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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