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[ २८८ ] श्री सत्य in
[વર્ષ : वली में है जो श्री बर्द्धमानमूरिजी से जिनपद्मसरिजी तक तीन भागों में शेष होतो है। प्रथम भाग सुमतिमणि की गणधर सार्धशतक की बृह.
वृत्ति का है, दूसरा भाग श्री जिनपालोपाध्याय कृत जिनपतिसरि चरित्र का है। इस जीवनचरित्र में महोपाध्यायजीने अपने नजरों देखी बातें लिखी हैं, क्यों कि उनकी दीक्षा सं. १२२५ में पोहकरण में श्री जिनपतिसरिजी के करकमलों से हुई थी।
सं. १२६९ में जावालिपुर में उनका उपाध्याय पद हुआ और सं. १३११ में पालनपुर में जिनपालोपाध्याय स्वर्गवासी हुए । वे अपने गुरु श्री जिनपतिसूरिजी के जीवनचरित्र में लिखते हैं कि
'सं. १२३४ फलवर्द्धिकायां विधिचैत्ये पार्श्वनाथ : स्थापितः” ।
इस प्रतिष्ठा के समय श्री जिनपालजी को दीक्षा लिये ९ वर्ष होगए थे, ये प्राय : अपने गुरु के साथ विचरे हैं, अतएव इससे बढकर प्रामाणिक ग्रन्थ और क्या हो सकता है ? अब यह निस्सन्देह प्रमाणित हो जाता हैं कि पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिष्ठा सं. १२३४ में खरतरगच्छाचार्य श्री जिनपतिसूरिजीने की थी।
सतरहयों शताब्दी के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ " कर्मचन्द्र मन्त्रि वंश प्रबन्ध" में लिखा है कि मंत्रीश्वर कर्मचन्द्र सं. १६४६ के लगभग जब बीकानेर का त्याग कर मेडता में रहते थे तब उन्होंने फलौधी में श्री जिनदत्तमुरिजो और श्री जिनकुशलसूरिजी के स्तूप निर्माण करवाए थे। किन्तु इस समय उन पूज्य स्तूपों का कोई पता नहीं है। मारवाड की भूमि भूकम्प आदि प्राकृतिक कोप से प्राय : सुरक्षित है अतएव यवनों के उत्पात के सिवाय दूसरा कोई भी कारण प्रतीत नहीं होता। न जाने कितना भव्य शिल्प अनार्यों के प्रबल हाथों से धराशायी हो गया !
इस समय फलौधी पार्श्वनाथजी में जो दादाबाडी विद्यमान है वह धर्मशाला के अन्दर ही नबीन बनी हुई है। सं. १९६५ में मेड़ता निवासी भड़गोतया गोत्रीय श्रावक कर्णमलजी ने बनवाई हुई है। अतः प्राचीन स्तूपों का पता लगाना आवश्यक है। ___ संख्याबद्ध जन तीर्थ जो प्रकृतिदेवी के अन्तस्थल में विलीन हो गये उन्हें खोजने व वर्तमान तीर्थों का प्रामाणिक इतिहास निर्माण करने व शिलालेखों का संग्रह करके प्रकाश में लाने के लिए वर्तमान युग का वायुमण्डल प्रेरणा करता है। जैनों को इस और खूब तमन्ना से संलग्न हो कर अपने पूर्वजों की कीर्तियां चमका देना चाहिए।
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