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शताब्दीओ बाद अशोकना पौत्र राजा संप्रतिना आश्रयथी जैन श्रमणो दूर दूरना प्रदेशोमां विचरवा लाग्या अने आन्ध्र, द्रविड, महाराष्ट्र अने कुडुक्क (कूर्ग) व्यां पूर्व साधुओ जता नहोता त्यां पण श्रमणोनो सुखविहार प्रबो. ए समयथो नीचे प्रमाणे साडीपचीस आर्यदेशो गणावा लाग्या, जेनो मोघम उल्लेख पण आगमसाहित्यमां वारंवार मळे छ : मगध (राजधानी राजगृह ), अंग ( चंपा), बंग (ताम्रलिप्ति ), कलिंग ( कांचनपुर ), काशी (वाराणसी), कोशल( साकेत ), कुरु (गजपुर-हस्तिनापुर ), कुशावर्त ( शौरिपुर ), पांचाल (काम्पिल्यपुर), जांगल (अहिच्छत्रा), सुराष्ट्र ( द्वारवती), विदेह (मिथिला), वत्स ( कौशांबी ), शांडिल्य नंदिपुर ), मलय ( भदिलपुर ), मत्स्य (वैराट ), वरणा ( अच्छा ), दशार्ण ( मृत्तिकावती), चेदि (शुक्तिमती), सिन्धु-सौवीर (वीतिमय ), शूरसेन (मथुरा), भंगि (पावा), वट्टा ( मासपुरो), कुणाला ( श्रावस्तो), लाढ (कोटिवर्ष), केकयीनो अर्धभाग (श्वेतिका).
आ सूचिमां आन्ध्र महाराष्ट्रादि प्रदेशोनो उल्लेख नथी ए ध्यान खेंचे छे. कोंकण के ज्यां जैन साधुओ विचरता हता एनुं नाम पण एमां नथो. गुजरात अने राजस्थानना जे प्रदेशो पाछळथी जैन धर्मनां प्रमुख केन्द्रो बन्यां ए पण एमां नश्री. पण एकंदरे एम कही शकाय के संप्रतिना राज्यकाळ पछीना समयमा भारतमां जैन धर्मना प्रभावनो सर्वसामान्य नकशो ए रजू करे छे. इन्ही क्षेत्रोमें निर्ग्रन्थ भिक्षु और भिक्षुणियों के ज्ञान-दर्शन और चारित्र अक्षुण्ण रह सकते हैं।' ('भारत के प्राचीन जैन तीर्थ,' पृ. १४). ज्ञान दर्शन अने चारित्र्यनी वृद्धि थती होय तो 'आर्यक्षेत्र 'नी बहार विहार थई शके एवो प्राचीन टोकाकारोनो अर्थ मने संगत लागे छे. 'आर्यक्षेन'नी सामाजिक स्थिति जैन साधुओना कडक आचारपालनने अनुकूळ हती; पण जेम जेम अन्य प्रदेशोमां जैन धर्मनो प्रचार थयो तेम तेम विहारक्षेत्रनो विस्तार पण वध्यो.
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